सबसे महत्वपूर्ण बात है कि न्याय
समय पर मिलना चाहिए। अगर न्याय देरी से मिले तो उसका कोई मतलब नहीं रह
जाता। लोगों को लग रहा था कि देश आजाद हो गया, लेकिन उन्हें न्याय तो मिला
ही नहीं। लोगों के मन में इस बात की टीस थी, जो अंदरखाने बढ़ती जा रही थी।
इसके लिए किसी एक दल के नेता या विचारधारा को दोषी ठहराने का प्रयास करना
गलत है, क्योंकि यह एक सामाजिक मनोभाव था।
सवाल क्या है, उससे
ज्यादा जरूरी है कि सवाल करने वाला कौन है? संदर्भ है अयोध्या में बाबरी
ढांचे को गिराए जाने पर अदालत के फैसले के बाद असहमति के हाशिए की ओर से
उछाला गया यह सवाल कि मस्जिद टूटी कैसे? क्या मस्जिद को किसी ने नहीं तोड़ा?
ये कैसा सवाल है? क्या सवाल यह नहीं होना चाहिए था कि वह ढांचा या मस्जिद
बनी कैसे थी? अगर यह सवाल समवेत स्वर में उठाया गया होता तो बहुत पहले
न्याय हो जाता और सामाजिक समरसता के ताने-बाने को बार-बार अग्नि-परीक्षा से
नहीं गुजरना पड़ता। लेकिन दुख की बात है कि आज भी गलत सवाल को सही साबित
करने का कुचक्र चल रहा है। वर्ना हमने तो संस्कार और व्यवहार से अयोध्या का
मतलब समझा था- अ ‘युध्य’ अर्थात जहां युद्ध न हो। लेकिन उस अयोध्या को
अखाड़ा किसने बनाया? सही समय पर सही सवाल न उठाकर और चिंगारी को सुलगाकर लोक
की सहनशक्ति के चुकने का इंतजार करने वाले तत्व हमारे ही बीच में हैं।
जरूरत है इन्हें पहचानने और इनसे अपने बहुरंगी समाज को बचाने की।
इतिहासकार
कनिंघम ने लखनऊ गजेटियर में लिखा है, ‘जब अयोध्या में राम मंदिर तोड़ा जा
रहा था, तब हिन्दुओं ने अपनी जान की परवाह नहीं की। विरोध कर रहे 1,74,000
हिंदुओं की लाशें गिर जाने के बाद ही बाबर का सिपहसालार मीर बाकी मंदिर को
तोपों से गिराने में सफल हो सका।’
ध्यान दीजिए, समाज की आस्था पहले से
ही आहत थी, ऊपर से लोकतंत्र का दम भरने वालों ने लोक और तंत्र पर अपनी जिद
और सनक थोपने की कोशिश की। वाजिब सवाल करने नहीं दिए गए, इसलिए सही जवाब भी
नहीं मिला। ऐसे में पहले से चोट खाया समाज तिलमिला उठा। लिहाजा, जिस तरह
से मस्जिद बनी थी, उसी तरह से टूट भी गई। इसके लिए सिर्फ और सिर्फ एक दल
(पढ़ें भाजपा) के नेताओं को दोष नहीं दिया जा सकता। इसलिए जिन्हें आरोपी कहा
जा रहा था, अदालत ने उन्हें बरी कर दिया।
23 दिसंबर, 1949 को जब रामलला
प्रकट हुए, तब उनके दर्शन करने वाले श्रद्धालुओं का मेला-सा लग गया।
दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने अयोध्या विषय पर अपनी पुस्तक
में लिखा था कि कुछ मुस्लिम नेता इस बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरू से मिले। इसके बाद नेहरू ने फौरन मस्जिद से मूर्तियां हटाने
का आदेश दे दिया। उन्होंने इस बारे में न तो जांच के आदेश दिए और न ही
उत्तर प्रदेश सरकार से तथ्य ही पूछे। अपने आदेश में नेहरू ने कहा कि
मूर्तियां हटाई जाएं और इसमें बल प्रयोग करना पड़े तो वह भी किया जाए।
यह
क्या है! आपने तथ्यों को नहीं देखा, समाज की श्रद्धा को नहीं देखा, जमीनी
परिस्थितियों को नहीं देखा और दन से समाज के और ऊपर अपनी ताकत का गोला दाग
दिया!
सवाल है कि समाज का मुद्दा देश की सबसे बड़ी पार्टी, कांग्रेस का
मुद्दा क्यों नहीं बना? क्योंकि उसे समाज से नहीं, सत्ता से प्रेम था।
वास्तव में कांग्रेस ने अंग्रेजों के रास्ते पर चलने की जिद पकड़ रखी थी।
तथ्य यह है कि कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ नेता दाऊदयाल खन्ना ने सबसे पहले
मंदिर का मुद्दा उठाया था। उन्होंने मार्च 1983 में मुजफ्फरनगर में आयोजित
एक हिन्दू सम्मेलन में अयोध्या, मथुरा और काशी के स्थलों को पुन: अपने
अधिकार में लेने के लिए हिन्दू समाज का प्रखर आह्वान किया। उस समय मंच पर
दो बार देश के अंतरिम प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा भी मौजूद थे।
लेकिन कांग्रेस को यह मुद्दा ही नहीं चाहिए था। उसका अपना अलग एजेंडा था।
जब तक समाज टुकड़ों में नहीं बंटेगा, वोटों के तराजू पर उसे तौला नहीं जा
सकेगा, उसका चौसर की गोटियों की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा।
ऐसे समाज की तंद्रा जब टूटती है तो वह खुद को ठगा हुआ महसूस करता है।
सबसे
महत्वपूर्ण बात है कि न्याय समय पर मिलना चाहिए। अगर न्याय देरी से मिले
तो उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। लोगों को लग रहा था कि देश आजाद हो गया,
लेकिन उन्हें न्याय तो मिला ही नहीं। लोगों के मन में इस बात की टीस थी, जो
अंदरखाने बढ़ती जा रही थी। इसके लिए किसी एक दल के नेता या विचारधारा को
दोषी ठहराने का प्रयास करना गलत है, क्योंकि यह एक सामाजिक मनोभाव था। जिन
नेताओं को आरोपी बताया गया, उनके जन्म से पहले, जिन दलों से उनका जुड़ाव था
उन राजनीतिक दलों के जन्म से भी पहले से समाज अपने मान बिंदुओं के सम्मान
की रक्षा और पुनर्स्थापना के लिए संवेदनशील था। यह सदियों पुरानी लड़ाई थी।
आक्रांताओं
ने सीधा राष्ट्र की अस्मिता पर हल्ला बोला था और औपनिवेशिक सत्ता के गोरे
कारोबारियों ने भारत के लोगों को लड़ा-बांटकर इस देश की साझा ताकत के टुकड़े
किए थे
लोगों को खांचों में बांटकर अपना उल्लू सीधा करने की राह
अंग्रेजों ने क्या दिखाई, आजादी के समय लोगों के आक्रोश को यूं ही जाया
करने के विचार से सेफ्टी वॉल्व की तर्ज पर बनी कांग्रेस ने जैसे इसे
हमेशा-हमेशा के लिए अपना लिया। इसी वोटबैंक की राजनीति, जनभावनाओं की
उपेक्षा और न्याय मिलने में देरी उस दिन अयोध्या में गुबार बनकर उभरा था।
अदालत ने इन बातों को ध्यान में रखा, यह बड़ी बात है। विवेचना तो इस बात की
होनी चाहिए कि अदालत में हेर-फेर वाले वीडियो साक्ष्य के तौर पर देने वाले
और अदालत के बाहर इस समाज को लताड़ने-लड़ाने का खेल खेल रहे कथित
बुद्धिजीवी-पत्रकारों की कलई भी इस फैसले के बाद खुल गई है।
अपनी
कारगुजारियों से ध्यान हटाने के लिए अब यह लोग न्याय व्यवस्था पर हल्ला बोल
रहे हैं। लोगों को उकसा रहे हैं। सवाल यह भी है कि हर फैसले की आड़ में
न्यायालय को क्यों कोसा जाता है? ऐसा क्यों है कि ढांचा विध्वंस विवाद में
अदालत का फैसला आने पर पाकिस्तान का जो रुख है, वही कांग्रेस का है? क्या
देश और जनभावनाओं के विरोध में जाकर राजनीति होगी? क्या देश की संवैधानिक
संस्थाओं पर हमला बोलकर राजनीति होगी? इस गलत परिपाटी पर नकेल कसने की
जरूरत है। समाज ने जिन्हें हाशिये पर धकेल दिया, वह अगर अभी भी नहीं संभले
हैं तो लोकतंत्र में आगे इनकी और दुर्गति तय है।
@hiteshshankar