तीन नये कृषि कानूनों के विरुद्ध दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को समझने
के लिए इसके तीन आयामों को समझना होगा। कानूनों से प्रभावित होने वाला वर्ग
व्यापक है इसलिए इन कानूनों के विषय में राजनीति को किनारे रखते हुए
विस्तृत और तथ्यात्मक विश्लेषण करना जरूरी है।
तीन नये कृषि कानूनों के विरुद्ध दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को समझने के लिए इसके तीन आयामों को समझना होगा। कानूनों से प्रभावित होने वाला वर्ग व्यापक है इसलिए इन कानूनों के विषय में राजनीति को किनारे रखते हुए विस्तृत और तथ्यात्मक विश्लेषण करना जरूरी है।
फैलाव खेती से खुदरा तकइस विवेचन के क्रम में पहला प्रश्न तो यही आता है कि इन तीन कृषि कानूनों से प्रभावित होने वाले पक्ष कौन-कौन से हैं? यानी इस आंदोलन का वास्तविक फैलाव कहां तक संभव है, यह समझना होगा।
क्या वास्तव में इन कानूनों का फलक इतना सीमित है कि सिर्फ सीमित भूगोल, पहचान, रुझान वाले चेहरे ही वार्ता में शामिल होंगे। वास्तव में ये कानून सिर्फ किसान ही नहीं, उसके साथ उपभोक्ताओं, कृषि उत्पाद का व्यापार करने वालों, कॉरपोरेट, खाद्य प्रसंस्करण में लगी हुई इकाइयों, सामान्य खुदरा विक्रेताओं, थोक विक्रेताओं, सब पर असर डालता है। यानी एक पूरी श्रृंखला है जो हम सबको बांधती है। इस श्रृंखला का एक अत्यंत छोटा हिस्सा और उसपर भी अलगाववादी या मोदी विरोध की कुंठा को ही पहचान बना चुके चेहरे ही हमें आंदोलनरत दिख रहे हैं। यह संकेत है कि कुछ तत्व बड़े सामाजिक-आर्थिक मुद्दे को संकीर्ण, आक्रोशी बनाने में जुटे हैं।
साथ ही, यह केवल अनाज की बात नहीं है। तीनों कानून देश में उत्पादित लगभग-लगभग 32 करोड़ टन फल सब्जी, 30 करोड़ टन खाद्यान्न, लगभग 19 करोड़ टन दूध सहित लगभग एक अरब टन से ऊपर के कृषि उत्पादों के बाजार वाली कृषि क्षेत्र से जुड़ी अर्थव्यवस्था ही नहीं, समस्त 12 हजार अरब रुपये की खुदरा बाजार की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले हैं। इसलिए इन कानूनों के विरोध में होने वाले आंदोलन को किसान आंदोलन कहना, मुद्दे को सीमित कर देना है।
क्या बेमतलब हैं किसानों की आशंकाएं!प्रश्न यह है कि क्या किसानों के उठाए सब सवाल बेमतलब हैं? यहां हमें समझना होगा कि जब भी कोई कानून बनाता है तो ऐसा कभी नहीं होता है कि एक ऐसा मसविदा सामने आता हो जिसमें संशोधन की कोई संभावना ही न छूटी हो। इसलिए किसी कानून पर उससे प्रभावित होने वाले लोगों की आशंकाएं बेमतलब ही हों, यह आवश्यक नहीं।
किसानों की सबसे बड़ी आशंका न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर है। उनकी मांग है कि निजी क्षेत्र में उपज एमएसपी से नीचे बिके। पहले ही मौसम की मार और पूंजी के अभाव से ग्रस्त किसानों की यह मांग एक संवेदनशील विषय है और इसे सुनिश्चित कराने का तंत्र बनाने पर सरकार को संवेदनशीलता से सोचना चाहिए।
दूसरी आशंका यह है कि पैनकार्ड धारक ही फसल खरीद सकता है। किसान डरे हुए थे कि पैनकार्ड तो कोई भी बनवा सकता है, खरीदार का ट्रैक रिकॉर्ड क्या है, जिम्मेदारी क्या है, यह कैसे तय होगा। तो इस संबंध में खरीदारों के लिए पंजीकरण की व्यवस्था होनी चाहिए। यह एक तर्कसंगत बात है, राज्यों को खरीदारों का पंजीकरण करना चाहिए। जो लोग कृषि उत्पाद की खरीद के व्यवसाय में है, उनके लिए केवल पैनकार्ड ही जरूरी न हो बल्कि उनका पंजीकरण भी होना चाहिए। इससे विश्वसनीयता आयेगी और किसान सुरक्षित महसूस करेगा। अच्छा है कि इस दिशा में केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को पहल के लिए इंगित किया है।
कानून में तीसरा महत्वपूर्ण विवादित बिंदु है यह है कि क्रेता और विक्रेता में किसी सौदे पर लड़ाई होने की स्थिति में एसडीएम कोर्ट से निपटारे की बात कही गयी है। लेकिन एसडीएम अदालतों पर पहले ही भारी बोझ है और जब इतने कृषि सौदों के मामले जायेंगे तो उनकी प्राथमिकता क्या रहेगी, उनके हाथ में पहले से ही नागरिक प्रशासन के कई अन्य मामले हैं। ऐसे में एसडीएम कोर्ट की जगह क्या कृषि न्यायालय जैसी कोई व्यवस्था हो सकती है! यह सरकार को देखना चाहिए।
चौथा महत्वपूर्ण बिंदु कांट्रैक्ट फार्मिंग है। कांट्रैक्ट फार्मिंग में एमएसपी से नीचे के किसी सौदे को मान्यता नहीं मिलनी चाहिए। इससे किसानों को सुरक्षा मिलेगी। इसके अलावा एमएसपी वाली फसलों के अलावा फल-सब्जी और अन्य तमाम कृषि फसलों का भी लागत के ऊपर 50 प्रतिशत लाभ के फॉमूर्ले के आधार पर आकलन करने की तर्कसंगत व्यवस्था बननी चाहिए जिससे खेती लाभ का धंधा बन सके। इससे होगा यह कि पहले बेचने वालों में प्रतिस्पर्धा होती थी, इस कानून से खरीदने वालों में प्रतिस्पर्धा होगी।
इसके अलावा खरीदने वाले को एक ऐसा पोर्टल बनना चाहिए जिसमें कहां कितनी उपज हुई, कहां कितना भंडारण है, यह पारदर्शी तरीके से प्रदर्शित हो जिससे हितधारकों के सामने परिदृश्य साफ रहे और मुनाफाखोरी और कालाबाजारी न हो। यह धीरे-धीरे आकार लेने वाली प्रक्रिया है। खरीदारों की प्रतिस्पर्धा से बाजार उसके हिसाब से संतुलित होगा और यह देश की आवश्यकताओं के हिसाब से बहुत अच्छा है।
क्या राजनीतिक है यह आंदोलन!एक प्रश्न यह है कि क्या यह आंदोलन राजनीति प्रेरित है? इस आंदोलन में देखने में यह आ रहा है कि यहां जो किसान नहीं हैं, वे फसल काट रहे हैं। यानी वे राजनीतिक लोग, जिनका किसानी से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन सरकार के विरोध के लिए वे इस आंदोलन का उपयोग कर रहे हैं।