आराधना शरण दिल्ली की सीमाओं पर महीनों का राशन-पानी लेकर बैठे किसानों और उनके नेताओं का कृषि सुधार कानूनों को सिरे से नकारना कई विशेषज्ञों को अटपटा लग रहा है। इनके बनने के पीछे वजह है कि दशकों से किसान पुराने कायदे-कानूनों से त्रस्त रहे, फसल का पूरा मोल पाने से वंचित रहे और बिचौलियों की धमक झेलने से उन्हें निजात मिले। नए कृषि सुधार कानूनों के बाद से भारत के विभिन्न हिस्सों में खेती-किसानी में अभूतपूर्व सकारात्मक बदलाव देखने को मिले हैं, जिनमें से कुछ यहां प्रकाशित किए जा रहे हैं। किसानों का अहित कोई नहीं चाहता, लेकिन यह मुद्दा संवेदनशील है और इसे संवेदना से ही देखना होगा। सरकार में शीर्ष स्तर पर अनेक दौर की वार्ताओं और किसानों से चर्चाओं के बावजूद गतिरोध का बने रहना चिंता की बात है। किसान जिद पर अड़ जाएं, यह बात समझ से परे है। इससे उन आशंकाओं को बल मिलता है कि निहित स्वार्थी तत्व किसान की आड़ लेकर अपना स्वार्थ साध रहे हैं। धरना स्थलों पर अराजकता के दृश्य, देश विरोधी नारेबाजी, अलगाववादी तत्वों द्वारा मंचों को कब्जाया जाना आदि किसी प्रकार देशहित में नहीं कहा जा सकता कृषि उपज की यात्रा खेतों से शुरू होकर उपभोक्ता तक जाकर खत्म होती है। हालांकि इसके अलग-अलग चरणों में लोगों की अलग-अलग भूमिकाएं होती हैं। ये लोग खेतों में खून-पसीना बहाकर उपज पैदा करने वाले किसानों से लेकर बाजार और व्यापारियों तक, खरीद-बिक्री का महत्वपूर्ण हिस्सा बनते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि कृषि क्षेत्र में सबसे ज्यादा मेहनत करने वाला किसान, जो उत्पादन प्रक्रिया का मुख्य किरदार है, इस क्रम की सबसे कमजोर कड़ी है। कृषि से जुड़े तीन नए केंद्रीय कानून इस बात की ईमानदार स्वीकारोक्ति है कि आजादी के बाद सत्ता प्रतिष्ठानों ने किसानों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया, जो सर्दी-गर्मी-बरसात की परवाह किए बगैर धरती को सींचकर-जोतकर अन्न उत्पादन करते हैं। इसलिए इस बात की जरूरत थी कि इन्हें आर्थिक तौर पर मजबूत बनाते हुए ग्रामीण भारत को भावी विकास का इंजन बनाया जाए। उसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जब नरेंद्र मोदी सरकार हाशिए पर जी रहे किसानों के हितों की पूर्ति के लिए कृषि कानून लाई तो उसका स्वागत करने के बजाय कुछ किसान नेताओं के उकसावे पर हजारों लोग विरोध का झंडा लेकर सड़क पर उतर आए। इन कानूनों के खिलाफ जिस तरह दिल्ली की घेराबंदी हुई और देशभर में जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे, उससे एक बात तो साफ हो गई कि कृषि से जुड़ी गतिविधियों के विभिन्न चरणों में किसानों के बजाय अन्य लोगों के हित आड़े आ रहे हैं।
किसी असंतोष की वजह क्या है और इसका निराकरण क्या होगा, यह पता लगाने के लिए समस्या की जड़ में जाना पड़ता है। कृषि कानूनों को लेकर उभरे विरोध की गुत्थी सुलझाने के क्रम में हमने देशभर के किसानों और किसान उत्पादक संघों से बातचीत की तो जमीनी हकीकत हमारे सामने थी।
मूल्य मिला अधिक मध्य प्रदेश स्थित मध्य भारत कंसोर्टियम आॅफ फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लि. ने सीहोर और देवास जिले के 65 किसानों से 2,050 रु. प्रति क्विंटल की दर से 600 मीट्रिक टन गेहूं खरीदकर इसे रिलायंस रिटेल को 2,100-2,600 रु. के भाव पर बेच दिया, जिससे किसानों को एमएसपी और मंडी भाव की तुलना में प्रति क्विंटल 50-100 रुपये अधिक मिले। यह किसानों की उपज सीधे उनके खेतों से खरीदने का नतीजा है कि अब उन्हें उपज की अच्छी कीमत मिल रही है। कंपनी के सीईओ योगेश द्विवेदी कहते हैं, ‘‘आज हर क्षेत्र के उत्पादकों को इस बात का आजादी है कि वे जहां चाहें, जिस बाजार में चाहें, अपने उत्पाद बेच सकते हैं। नए कृषि कानूनों से किसानों को भी कानूनी तौर पर यह अधिकार मिल गया है कि वे अपनी मर्जी से मंडी या मंडी के बाहर अपनी उपज बेच सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो किसान को जहां अधिक दाम मिलेगा, वह अपनी फसल वहां बेचेगा।’’ इस संदर्भ में किसान उत्पादक संगठन भी किसानों को एक विकल्प देते हैं कि अगर किसान चाहें तो उपज उसे भी बेच सकते हैं। मेसर्स मध्य भारत कंसोर्टियम किसान आॅफ फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड और मध्य प्रदेश के रीवा फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड ने जून-जुलाई के दौरान मंडी के बाहर एक संयुक्त खरीद केंद्र बनाया और राज्य के सीहोर जिले के गाडराखेड़ी गांव के करीब 175 किसानों से 450 मीट्रिक टन प्याज खरीदकर नेफेड को बेच दिया। योगेश द्विवेदी कहते हैं, ‘‘अब चूंकि किसान उत्पादक संगठन बनाना आसान हो गया है। इससे किसानों को अपने उत्पाद का बेहतर दाम मिलने का एक और माध्यम मिल गया है। पहले ऐसे संगठन बनाना आसान नहीं था। इसके लिए मंजूरी तो लेनी ही पड़ती थी, दो करोड़ रुपये की पूंजी भी लगानी पड़ती थी। हमारी जैसी संस्था आखिर इतने पैसे कहां से लाती? जितनी ज्यादा प्रतिस्पर्धा होगी, उसका फायदा अंतत: तो किसानों को ही होगा। हां, अगर ऐसी व्यवस्था हो जाए कि मंडियों में खरीदी के लिए बाहरी लोगों के लिए भी रास्ता आसान हो जाए, तो और अच्छा होगा।’
बंगाल के
कालियागंज कृषि उद्योग प्रोड्यूसर कंपनी से जुड़े बिलाल रहमान (सबसे दाएं)
ने ओडिशा के एक स्वयं सहायता समूह की हल्दी बिकवाने में मदद की।
पहली बार किसान को अधिकार महाराष्ट्र की मेसर्स सूर्या फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड ने बांग्लादेश को 1.22 करोड़ रु. की हल्दी का निर्यात किया और मंडी से बाहर 1 करोड़ मूल्य की हल्दी आईटीसी और अन्य खरीदारों को बेची। इससे एपीएमसी के बाहर बेचने पर 1 प्रतिशत मंडी शुल्क की बचत हुई और बिचौलियों से भी छुटकारा मिला। एक बार मंडी पहुंचने पर परिवहन लागत और समय बचाने के लिए किसान अपनी उपज उसी दिन बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में पूरा दिन निकल जाता है। अब किसान बिना मंडी गए बांग्लादेश व आईटीसी को सीधे अपनी उपज बेच रहे हैं। सूर्या फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी के अध्यक्ष प्रह्लाद बोरगड़ कहते हैं, ‘‘मंडी से खरीदने पर हमें शुल्क और ढुलाई वगैरह पर करीब 4 प्रतिशत खर्च करना पड़ता था, वह पैसा बच गया। इसी कारण अब हम किसानों को ज्यादा मूल्य दे सकते हैं। चूंकि हमारे जैसी संस्थाओं में किसान अंशधारक होते हैं, इसलिए कंपनी जैसे-जैसे बड़ी होगी तो उसका भी फायदा किसानों को ही मिलेगा।’’
बोरगड़ कहते हैं कि एक और अच्छी बात है कि मंडी में भंडारण की एक सीमा थी, जिसके कारण आढ़ती चाहकर भी अधिक अनाज नहीं खरीद सकते थे। अब सीमा खत्म हो गई है तो जिनके पास भंडारण सुविधा होगी, वे ज्यादा भी खरीद सकेंगे।
अधिक आजादी, अधिक दाम मेसर्स अजयमेरु एफपीसी राजस्थान के अजमेर में कार्यरत है। यह करीब 15 साल से कृषि क्षेत्र में काम कर रही है और कृषि क्षेत्र में सुधारों के लिए चल रही पायलट परियोजना का हिस्सा रही है। कंपनी चने व फल-सब्जी का कारोबार करती है। इसने 23 किसानों से 20 लाख रुपये मूल्य का 41 मीट्रिक टन चने खरीदे, जिससे किसानों को बेहतर दाम मिला। अजयमेरू के सीईओ ओम निवास शर्मा कहते हैं, ‘‘पहले हमारी सीमाएं थीं। हमारे पास एक मंडी का लाइसेंस था और हम केवल केकड़ी ब्लॉक से खरीद कर सकते थे। जिले की दूसरी मंडी से खरीद के लिए कई स्तरों पर अनुमति लेनी पड़ती थी। आज हम केकड़ी मंडी की रसीद के आधार पर चार राज्यों से खरीद कर रहे हैं। हम गुजरात, उत्तर प्रदेश व पंजाब में भी काम कर रहे हैं।’’ यह कंपनी आज गुजरात के सीमाई इलाके में अनार खरीद के केंद्र भी बना चुकी है, जहां से खरीद भी हो रही है। ओम निवास कहते हैं, ‘‘पहले किसान उपज लेकर जब मंडी पहुंचता था तो दोपहर बाद जैसे-जैसे सूरज ढलता था, उसकी धड़कनें भी बढ़ने लगती थीं, क्योंकि उपज बेचकर लौटना उसकी मजबूरी होती थी। अब उसके पास तोल-मोल की ताकत है। खरीदने वाला किसान के पास जाएगा और जब किसान को अच्छा पैसा मिलेगा तभी बेचेगा, नहीं तो दूसरे का इंतजार करेगा। उपज को मंडी ले जाने पर होने वाले खर्च आदि के झंझट से भी वह मुक्त हो गया है। यह सही मायने में किसानों का सशक्तिकरण है।’’ मंडियों में जब चने का भाव 3,750 रुपये प्रति क्विंटल था तब अजय मेरू ने किसानों को 100-150 रुपये अधिक कीमत दी। चने की एक किस्म पर 3,850 रुपये और दूसरी पर 3,900 से लेकर 3,940 रुपये तक मिले।
ओम
निवास शर्मा (दाएं से तीसरे) की संस्था राजस्थान की केकड़ी मंडी में
पंजीकृत है। पहले ये इस मंडी के बाहर से खरीदी नहीं कर सकते थे। नए कानून
के बाद उन्होंने अपना काम चार राज्यों में फैला लिया है। गुजरात में अनार
किसानों के साथ शर्मा
एसडीएम ने दिलाए फंसे हुए पैसे महाराष्ट्र के धुले में रहने वाले जितेंद्र भोई ने मध्य प्रदेश के खेतिया के व्यापारी श्रीवानी को 29 जुलाई को 270 क्विंटल मक्का बेची। सौदा 3,32,617 रुपये में हुआ और पेशगी के तौर पर उन्हें 25,000 रुपये मिल गए। आठ दिन के भीतर उन्हें शेष रकम देने का आश्वासन मिला। लेकिन जब आठ दिन में बकाया नहीं मिला तो जितेंद्र भोई ने पैसे के लिए कई बार फोन किया, पर कोई फायदा नहीं हुआ। वे कहते हैं, ‘‘मैं बार-बार तगादा करके थक गया था। आखिरकार 29 सितंबर को नए कानून के तहत एसडीएम के यहां शिकायत की और दो महीने के भीतर धीरे-धीरे करके मेरे सारे पैसे मिल गए।’’ जितेंद्र अब राहत महसूस कर रहे हैं कि उनके डूबे हुए पैसे वापस मिल गए।
जहां चाहा, बेचा हरीश चौहान हिमाचल (तहसील-रोहड़ू, जिला-शिमला, गांव-शील) के रहने वाले हैं। इस साल उनका कुल सेब उत्पादन 100 मीट्रिक टन रहा। उन्होंने सितंबर में 20 मीट्रिक टन सेब अडाणी और बिग बास्केट को बेचा। 60 मीट्रिक टन सेब एपीएमसी पर बेचा और बाकी 20 मीट्रिक टन भंडार गृह में रख दिया। शील गांव में कुल फसल उत्पादन का लगभग 20 प्रतिशत एपीएमसी की भूमिका के बिना सीधे बेचा जाता है। चौहान ने कहा, ‘‘इसमें संदेह नहीं कि कृषि क्षेत्र में एक बड़े सुधार की जरूरत थी, जिसका लाभ सीधे उत्पादकों को मिलता। इन नए कानूनों में भी इस बात का ध्यान रखा गया है। हमारे इलाके में तमाम लोग हैं, जिनके पैसे फंस जाते हैं। आज भी लोगों के करोड़ों रुपये फंसे हुए हैं। कई मामलों में तो लोगों को उच्च न्यायालय तक के चक्कर लगाने पड़े। अगर एसडीएम स्तर पर भुगतान संबंधी ज्यादातर विवाद सुलझ जाएं तो सेब उत्पादकों के लिए इससे राहत की बात क्या होगी।’’ हरीश चौहान का मानना है कि एमएसपी जैसी व्यवस्था का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए।
बिचौलिये की जरूरत नहीं जयपाल रेड्डी तेलंगाना के महबूबाबाद जिले के थल्लापुसपल्ली गांव के किसान हैं। वह कृषि में स्नातक हैं और जिला, राज्य से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कृषि व उससे जुड़ी गतिविधियों में विभिन्न पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। 2013 में उन्हें सर्वोत्कृष्ट किसान चुना गया था। वे किसान परिवार से जुड़े हैं और स्वयं 40 साल से अधिक समय से खेती कर रहे हैं। वे कहते हैं, ‘‘बेहतर मूल्य के लिए हम काफी पहले से देश के अलग-अलग कोनों में फसल बेचते रहे हैं। मैं पिता के साथ बचपन से यह काम करता रहा, लेकिन इसमें बिचौलियों की मदद लेनी पड़ती थी। दूर के राज्यों की तो बात छोड़िए, पहले हम बिना बिचौलियों के सीमावर्ती राज्यों को भी फसल नहीं बेच पाते थे। लेकिन पहली बार हमने राज्य के बाहर फसल बेची और किसी बिचौलिये को पैसा भी नहीं देना पड़ा। इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।’’
नए कृषि कानूनों में ठेके पर खेती की अनुमति पर जयपाल रेड्डी कहते हैं, ‘‘ठेके पर खेती तो पहले भी होती थी, बल्कि ऐसा कहें कि हमेशा से होती रही है तो शायद गलत न हो। अंतर यह था कि पहले सब कुछ जुबानी होता था और अगर कोई अपनी बात से पलट जाए तो उस स्थिति में किसान के सामने कोई रास्ता नहीं होता था। उपज खरीदने से इनकार करने या पैसे नहीं देने की स्थिति में कानूनी तौर पर किसान कुछ नहीं कर सकता था। अब किसान को इससे छुटकारा मिल जाएगा और वह लिखित समझौते के आधार पर दावा कर सकता है। मेरे आसपास ऐसे मामले भरे पड़े हैं, जहां किसानों के साथ ऐसी समस्याएं आर्इं। उम्मीद करता हूं कि अब वादा करके मुकरने के मामले में कमी आएगी।’’
जयपाल के पास 40 एकड़ खेत है, जिसमें से वह 10 एकड़ में धान, 4 एकड़ में मक्का, 5 एकड़ में दालें, 2 एकड़ में हल्दी, 8 एकड़ में चारा व 10 एकड़ में आम का उत्पादन करते हैं। अगस्त-सितंबर में ज्यादा दाम मिलने की उम्मीद में उन्होंने 5 एकड़ की रबी उपज को भंडार गृह में रख दिया था। नए कानून बनने के बाद उन्होंने 2,150 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान बेचा और गोदाम से उपज ले जाने पर खर्च भी नहीं करना पड़ा। हालांकि उन्होंने धान का नमूना भेज कर धान मिल से एपीएमसी मूल्य पूछा था तो उन्हें 1,950 रु. के भाव पर खरीद की पेशकश की गई थी। बढ़ गई कमाई विनायक हेमाडे महाराष्ट्र के नंदूर शिंगोटे गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने 4 एकड़ खेत में 45 किलो धनिये का बीज डाला। फसल तैयार होने के बाद दापुर गांव के व्यापारी शिवाजी दारोडे ने 12.5 लाख रुपये की पेशकश की जो सबसे अधिक थी। विनायक ने उन्हें धनिया बेच दिया। खरीदार अपने खर्चे पर खेत से ही धनिया ले गए। विनायक आसपास के इलाके में चर्चित हो गए हैं। किसान व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम 2020 के कारण ही विनायक सीधे अपनी उपज व्यापारी को बेच सके, जिसके कारण उन्हें इतनी अच्छी कमाई हुई। वे कहते हैं, ‘‘फसल मंडी में ले जाने पर किसी स्थिति में इतना पैसा नहीं मिलता और उसके बाद कमीशन वगैरह देना पड़ता सो अलग। लेकिन अब नए कानून के कारण मुझे न तो कमीशन देना पड़ा और न ही ढुलाई पर कोई खर्च करना पड़ा। व्यापारी खुद आकर धनिया ले गया और मुझे पैसे भी अधिक मिले।’’ नया बाजार मिला ओडिशा के कंधमाल जिले में वनदेवी महिला हल्दी मंडल नामक एक स्वयं सहायता समूह है। खरीदार नहीं होने के कारण उसके पास 30 मीट्रिक टन हल्दी पड़ी थी, जिसकी कीमत 19 लाख रुपये थी। नया कानून आने के बाद बंगाल की चार एफपीओ, कालियागंज कृषि उद्योग प्रोड्यूसर कंपनी लि., बंगालबाड़ी मॉडर्न एग्रीकल्चर प्रोड्यूसर कंपनी लि., चायनगर कृषक एग्रीकल्चर प्रोड्यूसर कंपनी लि. और करनदिघी एग्रो प्रोड्यूसर कंपनी लि. सामने आर्इं। उन्होंने संस्था की हल्दी को बंगाल में बेचने में मदद की और इस तरह ओडिशा के हल्दी उत्पादकों का फंसा हुआ पैसा निकल गया।
कालियागंज कृषि उद्योग प्रोड्यूसर कंपनी के सीईओ बिलाल रहमान ठेके पर खेती को बड़े कदम के तौर पर देखते हैं। वे कहते हैं, ‘‘हमारे लिए सबसे बड़ी बात यह है कि ठेके पर होने वाली खेती के नियम-कायदे अब तय हो गए हैं। जब लिखित में ठेका होगा तो सबसे अधिक फायदा किसानों का ही होगा। करार तो पहले भी होता था, लेकिन सब कच्चा होता था और अगर किसी तरह की वादा-खिलाफी हुई तो किसान के लिए इंसाफ पाने का कोई रास्ता नहीं होता था। इस तरह के मामले अक्सर हो जाया करते थे। लेकिन अब किसान, एफपीओ और पौधे उपलब्ध कराने वाले के बीच लिखित समझौता करेंगे। किस दाम पर किसान की उपज बिकेगी, यह पहले ही तय हो जाएगा। बाद में बेशक दाम गिर जाए, किसानों को नुकसान नहीं होगा, उसे तय भाव ही मिलेगा। यह एक बड़ा कदम है और आने वाले समय में इसका ज्यादा फायदा देखने को मिलेगा।’’
बड़े बाजार तक पहुंच अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी कामेंग जिले में दो एफपीओ हैं- कामेंग आर्गेनिक फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लि. और निचली दिबांग घाटी में लोअर दिबांग वैली आर्गेनिक जिंजर प्रोड्यूसर कंपनी लि.। इनके साथ क्रमश: 342 और 466 किसान जुड़े हैं और यहां हल्दी व किंग चिली का उत्पादन होता है। नए कानून के प्रावधानों के आधार पर इन एफपीओ ने मसालों के प्रसंस्करण और निर्यात से जुड़ी सिलीगुड़ी की कंपनी पर्वत फूड लि. के साथ समझौता किया है। इस तरह सैकड़ों किसानों के सामने एक बड़ा बाजार खुल गया और अब उन्हें बेहतर दाम मिला करेंगे। ज्यादा पैसे मिले मोहम्मद असलम राजस्थान के बारां जिले की अंता तहसील के रहने वाले हैं। वे मेसर्स अंता किसान एग्रो प्रोड्यूसर कंपनी लि. के सीईओ हैं और इस एफपीओ के 750 से ज्यादा शेयरधारक हैं। उनका एक व्हाटसएप ग्रुप है, जिसमें वे रोजाना आईटीसी, आसपास के बाजारों व अपने भाव की जानकारी देते हैं ताकि किसान यह फैसला करें कि वे अपनी फसल कहां बेचना चाहते हैं। उनके एफपीओ ने किसानों से 4,000 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत पर सोयाबीन खरीदा, जबकि एपीएमसी की दर 3,700 रुपये प्रति क्विंटल थी।
ढुलाई, कमीशन का पैसा बचा पी. बाला सुंदर 26 साल के हैं और बी.टेक करने के बाद खेती करते हैं। आंध्र प्रदेश के गुंटुर जिले के अपने गांव-थानगेडा में 7 एकड़ खेत में तीखी मिर्च की एक किस्म के उत्पादन में लगे हैं। यहां से मिर्च घरेलू और विदेशी, दोनों बाजारों में भेजी जाती है। उन्होंने 45 किलो के बोरे को छह माह के लिए प्रति बोरी 180 रुपये की दर से कोल्ड स्टोरेज में रख दिया। हाल ही में उन्होंने 100 क्विंटल मिर्च 16,000 रु. क्विंटल की दर से एक स्थानीय व्यापारी को बेच दी। वे इसलिए भी खुश हैं कि इस सौदे में उनके कई तरह के खर्चे भी बच गए। जैसे, कोल्ड स्टोरेज से बाजार ले जाने पर प्रति बोरी 30 रुपये का खर्च, एजेंट को दिया जाने वाला उपज का दो प्रतिशत कमीशन, प्रति बोरी 15 रुपये की दर से चढ़ाने/उतारने पर लगने वाला खर्च नहीं देना पड़ा।
सेब उत्पादकों की आय बढ़ी कश्मीर के सेब पूरे देश में बिकते हैं और विदेश भी जाते हैं, पर सेब उत्पादकों की कमाई पहले से बढ़ गई है। अदनान अली खान शोपियां के सेब उत्पादक हैं। 30 कनाल जमीन में 15 किलो वाले 6,000 बक्से सेब का उत्पादन हुआ। सेब उत्पादक पहले स्थानीय मंडियों में सेब बेचते थे और उन्हें प्रति बक्सा 500-600 रुपये मिलते थे। इसके अलावा उन्हें मंडी शुल्क और एजेंट को कमीशन भी देना पड़ता था। इस बार अदनान अली ने मंडी के बाहर प्रति बॉक्स 900-1,000 रुपये में सेब बेचे। साथ ही, उन्हें न तो मंडी शुल्क देना पड़ा और न ही कमीशन। नतीजा, अदनान की कमाई लगभग 30 प्रतिशत बढ़ गई।
खुली बोली बंद, ज्यादा पैसे मिले नए कानून बनने के बाद तमिलनाडु की मंडियों में उपज खरीदने का तौर-तरीका बदल गया है। पहले खुली बोली लगती थी, जिसमें व्यापारियों के लिए सांठ-गांठ करके भाव कम करना आसान था। अब बंद बोली लगती है, जिसमें पता नहीं होता कि किसने क्या बोली लगाई। इसके कारण किसानों को अपनी उपज पर 30-40 प्रतिशत अधिक मूल्य मिल रहा है।
इस साल नवंबर में पहली बार 8,394 नारियल की बिक्री बंद बोली के तहत हुई। वाडिपेट्टाई के नियंत्रित बाजार में बोली लगी और उत्पादकों को प्रति नारियल 14 रुपये की दर से पैसे मिले। पिछली बार पुरानी व्यवस्था के तहत भी किसानों को 14 रुपये प्रति नारियल की दर से पैसे मिले थे, लेकिन तब उन्हें 1,000 नारियल की बिक्री पर 150 नारियल मुफ्त में देने पड़ते थे क्योंकि वहां ऐसी ही अनौपचारिक व्यवस्था बनी हुई थी। एस. मणि मारन ने बताया कि इस बार बंद बोली से उन्हें 14 रुपये प्रति नारियल की दर से पैसे मिले और मुफ्त में एक भी नारियल नहीं देना पड़ा।
नए कानून: उद्देश्य और असर
कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम उद्देश्य: किसान मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकें। कहां बेचें, यह फैसला उन पर। उपज के लिए एक प्रतिस्पर्धी माहौल तैयार हो। असर:
मंडी के बाहर खरीद-बिक्री पर शुल्क खत्म हो जाने का असर यह हुआ कि कई
राज्यों ने मंडी शुल्क में कमी कर दी। इसके अलावा किसान का ढुलाई-लदाई पर
खर्च होने वाला पैसा बच गया। इस रिपोर्ट में ऐसे कई उदाहरण मौजूद।
मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम उद्देश्य:
ठेके पर खेती को नियम-कायदे के दायरे में लाना, जिससे किसानों को खामियाजा
न भुगतना पड़े। इसके अलावा एमएसपी के निजी संस्करण को स्थापित करना। यानी
जिस तरह एमएसपी के जरिये सरकार किसानों को तय मूल्य का आश्वासन देती है,
ठेके पर खेती की वैसी ही व्यवस्था निजी क्षेत्र के जरिये करती है। असर: किसानों
को बाजार के जोखिमों से बचाएगा, विपणन की लागत कम होगी और किसान की आय
बढ़ेगी। इस कानून के बाद देशभर से इस आधार पर करार हो रहे हैं।
आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम उद्देश्य: देशभर में उपज के भंडारण की सुविधा का तेजी से विस्तार हो और किसान के सामने ज्यादा उत्पादन करने के प्रतिकूल असर का खतरा न हो। असर:
निजी क्षेत्र भंडारण कारोबार में निवेश करने को प्रोत्साहित होगा।
जैसे-जैसे इस क्षेत्र में कारोबारियों की संख्या बढ़ेगी, बाजार में कीमतों
का स्तर भी संतुलित बना रहेगा।
खेती-किसानी से जुड़े इन लोगों से बातचीत से कम से कम एक बात तो एकदम साफ है कि ये नए कानून किसानों के लिए फायदेमंद हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि इनमें पहले से मौजूद किसी विकल्प को खत्म नहीं किया गया है, बल्कि इसे और विस्तार ही दिया गया है। उदाहरण के तौर पर किसान चाहे तो अपनी फसल मंडी में बेचे या मंडी के बाहर। चाहे तो किसान उत्पादक संघ को बेचे या किसी पड़ोसी जिले के व्यापारी को और चाहे तो राज्य के बाहर किसी व्यापारी को। किसान के लिए सारे रास्ते खुले हुए हैं। अलबत्ता कुछ ऐसे सवाल जरूर थे जो न तो तर्क पर खरे उतरते थे और न ही किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए हितकारी थे। जैसे, अगर किसान मंडी के बाहर फसल बेचता है तो वह मंडी शुल्क क्यों दे? मंडी में किसी आढ़ती के पास भंडारण की सुविधा है या भंडारण क्षमता बढ़ाने की क्षमता व इच्छा भी है, पर भंडारण सीमा तय होने के कारण वह चाहकर भी किसानों से अधिक उपज नहीं खरीद पाता तो यह व्यवस्था क्यों नहीं बदलनी चाहिए? आखिर किसी मंडी में काम कर रहे उत्पादक संघों को दूसरी जगह पर काम करने में बाधा क्यों खड़ी की जाए? मंडियों के लिए प्रतिस्पर्धा क्यों नहीं हो? ढुलाई-लदाई जैसे खर्चों से उत्पादक को मुक्त करके उसके हाथ में ज्यादा पैसे क्यों न दिए जाएं? दाम कम हो तो किसान मरे, ज्यादा हो तो व्यापारी कमाएं, ऐसी व्यवस्था को सुधारने की कोशिश क्यों न की जाए? अगर किसानों को सशक्त बनना है तो कृषि क्षेत्र में पूंजी का प्रवाह बढ़ाने की जरूरत है। आज हमारे सामने खाने का संकट नहीं, रखने का संकट है। जब तक भंडारण क्षेत्र में तेजी से निजी निवेश नहीं होगा, किसानों के सामने उपज बढ़ाने का कोई कारण नहीं है। जब तक उपज बढ़ेगी नहीं, आय कैसे बढ़ेगी? सरकार ने इन तीनों कानूनों के जरिये केवल इसी का रास्ता साफ किया है। निश्चित रूप से इसके सामाजिक और आर्थिक आयाम हैं। लगता है कि आज का आंदोलन उपज के व्यापार से जुड़े लोगों की खीज और कुछ भरमा दिए गए लोगों की बेचैनी का नतीजा है। जो आंदोलन आज हो रहा है, वह कल भी तो हो सकता था! अगर कल होता तो अंतर यह होता कि विरोध का आधार संकीर्ण होता और आशंकाएं नहीं होतीं। तब उसके प्रयोगसिद्ध आधार होते और सत्ता प्रतिष्ठान को यह स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ता कि उसकी दृष्टि से कुछ पहलू छूट गए और तब संशोधन का भी रास्ता निकलता।