नरेश सिरोही
भारत सरकार द्वारा बनाए गए वर्तमान में तीनों कानून देश के किसानों सहित देश की 130 करोड़ आबादी को प्रभावित करने वाले हैं। इन सुधारों को लागू करने की पृष्ठभूमि को देखें तो वैश्विक स्तर पर 90 के दशक में शुरू हुई उदारीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कृषि क्षेत्र में निजी निवेश के लिए पैदा हुए गतिरोधों को दूर कर साहसिक कदम उठाया है

भारत सरकार द्वारा बनाए गए वर्तमान में तीनों कानून देश के किसानों सहित देश की 130 करोड़ आबादी को प्रभावित करने वाले हैं। इन सुधारों को लागू करने की पृष्ठभूमि को देखें तो वैश्विक स्तर पर 90 के दशक में शुरू हुई उदारीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कृषि क्षेत्र में निजी निवेश के लिए पैदा हुए गतिरोधों को दूर कर साहसिक कदम उठाया है। वर्तमान में बनाए गए तीनों क़ानूनों को कृषि व्यापार में सुधारों की बड़ी पहल माना जाना चाहिए। वर्ष, 1991 में हुए आर्थिक सुधारों को देखते हुए अपने देश में भी कृषि व्यापार के सुधार के लिए वर्तमान एपीएमसी मंडियों, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के नियमों और आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में भी सुधारों की मांग लगभग पिछले 30 वर्षों से हो रही थी। कृषि क्षेत्र में व्यापार के लिए किए गए इन नीतिगत सुधारों को लागू होने के उपरांत, कृषि पद्धति में भी सुधारों को लागू करना आसान हो जाएगा। इन तीनों कानूनों से पहले भी, देश की आजादी के बाद कृषि क्षेत्र में किसानों की सिंचाई के संसाधनों में वृद्धि और भूमि सुधार कानूनों में बदलाओं, एपीएमसी कानून एवं बुवाई क्षेत्र का विस्तार व हरित क्रांति एवं एमएसपी पर खरीद की व्यवस्था सहित कई दौर के सुधार हुए हैं, जिसने किसानों की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में बड़ा बदलाव किया है। इन कानूनों से केवल करोड़ों किसान परिवार ही नहीं बल्कि मज़दूर वर्ग, देश के संपूर्ण उपभोक्ताओं सहित देश में कृषि क्षेत्र का व्यापार करने वाली लगभग तीन हज़ार से अधिक एग्रो कंपनियों तथा उनके साथ लगभग तीन लाख से अधिक कर्मचारियों, विश्वस्तरीय खाद्यान्नों का व्यापार करने वाले बड़े कॉरपोरेट, निर्यातकों, खाद्य प्रसंस्करण में लगी इंडस्ट्री, थोक विक्रेता, सामान्य खुदरा विक्रेता सहित सभी लोग प्रभावित होंगे। ये तीनों कानून देश में उत्पादित लगभग 30 करोड़ टन खाद्यान्न, लगभग 32 करोड़ टन फल सब्जी, लगभग 20 करोड़ टन दूध सहित लगभग एक अरब से ऊपर कृषि उत्पादों के बाजार वाली कृषि क्षेत्र से जुड़ी अर्थव्यवस्था ही नहीं, समस्त 12 हजार अरब रुपए की खुदरा बाजार की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले हैं। इसलिए इन कानूनों से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला वर्ग किसान और इस देश का उपभोक्ता है। उक्त तीनों क़ानूनों से देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी। इसलिए हमें किसानों, उपभोक्ताओं के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था को गति देने वाले प्रत्येक स्टेकहोल्डर के हितों को सर्वोपरि रखकर इन कानूनों के विषय में विस्तृत और तथ्यात्मक विश्लेषण करना जरूरी है। वास्तविकता यह है कि ये तीनों कानून, राज्य सरकारों द्वारा कृषि क्षेत्र के लिए बनाये गए नियमों और कानूनों के कारण, विश्वस्तरीय कृषि व्यापार के बाज़ार में पैदा हो रहे गतिरोध को दूर करेंगे और कृषि व्यापार के बाज़ार के लिए एक सरल और सुदृढ़ मार्ग प्रशस्त करेंगे। अब कोई भी व्यापारी किसी भी प्रदेश में बिना रोक—टोक, बिना किसी भी तरह के टैक्स दिये किसानों से कृषि उत्पादों की सीधे खरीदारी कर सकेंगे तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम द्वारा जो जमाखोरी के खिलाफ था, उसके समाप्त होने के बाद व्यापारी अपने गोदामों में जितना चाहें कृषि उत्पादों का भंडारण भी कर सकेंगे। तथा अब व्यापारी कांटेक्ट फार्मिंग कानून के माध्यम से वैश्विक स्तर पर जो कृषि उत्पाद उन्हें चाहिए, उसी के आधार पर किसानों से सीधे संपर्क करके मनचाही पैदावार करा सकेंगे।
दरअसल, सरकार ने नए कृषि कानून लागू कर वर्ष, 2022 तक कृषि निर्यात को दोगुना करने का लक्ष्य तय किया है। वर्तमान में कृषि उत्पादों का सालाना निर्यात 2809.85 अरब रुपए का है, जिसे सरकार 2022 तक दोगुना करके 4880.26 अरब रुपए करना चाहती है।
संभावित सुधार जो हैं अपेक्षित
किसानों की एपीएमसी मंडियां बंद होने की आशंका निर्मूल नहीं है। वर्तमान मंडियों में फसलों की खरीद पर अलग-अलग राज्यों में छह प्रतिशत से लेकर साढे़ आठ प्रतिशत तक टैक्स लगाया जा रहा है। परंतु नई व्यवस्था में मंडियों के बाहर कोई टैक्स नहीं लगेगा, इससे मंडियों के अंदर और बाहर कृषि व्यापार में विसंगति पैदा होंगी, जिसके कारण इस तरह की परिस्थितियां निर्माण होंगी कि मंडियां बिना कानून के स्वत: ही बंद होती चली जाएंगी। एक तरफ सरकार संपूर्ण देश में एक देश-एक टैक्स व्यवस्था को लागू करने के लिए जीएसटी जैसा मजबूत कानून लेकर आती है तो दूसरी ओर कृषि उत्पादों के व्यापार में विसंगतियां पैदा होने के खतरे को पैदा कर रही है। इसलिए कृषि व्यापार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पैदा करने के लिए मंडियों के अंदर और बाहर एक समान टैक्स व्यवस्था तथा मंडियों के अंदर व्याप्त विसंगतियों को दूर कर उन्हें सुदृढ़ करने के लिए अपेक्षित उपाय किए जाने चाहिए।
—किसान यह भी चाहते हैं कि मंडियों के बाहर कृषि का कारोबार करने वाले किसी भी व्यक्ति का केवल पैन कार्ड ही नहीं उसका पंजीकरण भी अवश्य होना चाहिए।
— यह भी सर्वविदित है कि विगत 70 वर्षों से आज तक देश में तमाम तरह के कृषि क्षेत्र में हुए सुधारों के बावजूद भी, किसान घाटे की खेती कर रहा है। क्या देश में किसानों के अलावा ऐसा कोई वर्ग है, जो लगातार घाटे का व्यापार अथवा रोजगार कर सके। इसलिए किसानों की मांग है कि सरकार के मंत्री, नौकरशाहों के साथ-साथ देश का बुद्धिजीवी, व्यापारी वर्ग, कॉरपोरेट जगत, सभी एक साथ बैठें और किसान की खेती में लगने वाली लागत का आकलन करें। और उसे जीवन जीने के लिए उसका जो मेहनताना है, उसे दिलाया जाए। इसी सब विषयों को ध्यान में रखते हुए, किसान निजी क्षेत्र द्वारा भी कम से कम एमएसपी पर खरीद की वैधानिक गारंटी चाहते हैं। एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) से नीचे फसलों की खरीद कानूनी रूप से वर्जित हो।
— किसानों और व्यापारी के बीच में विवाद निस्तारण के लिए एसडीएम कोर्ट के साथ साथ, दूसरा ऑप्शन भी दिया जा सकता है। पर मैं लेखक के तौर पर इस दूसरी व्यवस्था से सहमत नहीं हूं।
— कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में भी एमएसपी से नीचे किसी भी समझौते को मान्यता नहीं मिलनी चाहिए। एमएसपी के दायरे में आई हुई फसलों के अलावा, बाकी फल, सब्जियों सहित अन्य फसलों के लिए भी C2 प्लस 50 फीसदी फार्मूले के तहत बाकी फसलों की लागत का भी आकलन व्यवस्था होनी चाहिए।
— आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करते हुए सरकार ने अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन, आलू और प्याज सहित सभी खाद्य पदार्थों को अब नियंत्रण मुक्त किया है। कुछ विशेष परिस्थितियों के अलावा अब स्टॉक की सीमा समाप्त हो गई है। लेकिन उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने परिस्थितियों के हिसाब से कुछ नियंत्रण अपने पास रखें हैं। लेकिन इसमें और पारदर्शिता लाने के हिसाब से एक केंद्रीय स्तर पर एक पोर्टल बनाने की आवश्यकता है, जिसमें व्यापारी द्वारा खरीद और गोदामों में रखे गए और गोदामों से निकाले गए खाद्य पदार्थों का विवरण दिन प्रतिदिन अपडेट होता रहे।
— देश का हर व्यापारी, उद्योगपति अपने बनाए माल का दाम स्वयं तय करता है। ट्रांसपोर्टर अपना भाड़ा भी स्वयं तय करता है। लेकिन किसानों की कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य केंद्र सरकार द्वारा लागत के आधार पर घोषित किया जाता है। लेकिन अधिकतर फसलें बाजार में घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम मूल्य पर बिकती हैं। इससे किसानों को नुकसान होता है और उनका यह नुकसान फिर आन्दोलन का कारण बन जाता है। सरकार का नैतिक दायित्व है कि बाजारों में किसान की उपज का मूल्य उसके द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम न रहे।
—केंद्र सरकार आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 की उपधारा 2 (ग) के अंतर्गत इसमें शामिल वस्तओं की कीमतें नियंत्रित करने के लिए ऐसी कीमतें, जिस पर किसी आवश्यक वस्तु का क्रय या विक्रय किया जा सकेगा, निर्धारित कर सकती है।
—इस अधिनयम की धारा 3 के खंड 2 (ग) की शक्तियों का प्रयोग करते हुए केंद्र सरकार द्वारा वर्ष, 2018 में चीनी का न्यूनतम बिक्री मूल्य (एक्स मिल रेट) तय किया गया था। इससे चीनी के भाव में स्थिरता आई है और इससे किसानों को गन्ने का भुगतान मिलने में पहले के मुकाबले जल्दी व अधिक भुगतान मिला है।
— केंद्र सरकार आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अंतर्गत किसान हित में न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में कुछ मुख्य फल-सब्जी व् दूध आदि को भी शामिल करने व् इसके दायरे में आने वाली कृषि उपज का न्यूनतम बिक्री मूल्य तय करना चाहिए। न्यूनतम बिक्री मूल्य निर्धारित करना किसान हित में बेहद जरूरी है। इसलिए केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में कुछ मुख्य फल-सब्जी व दूध आदि को शामिल करने व इसके दायरे में आने वाली कृषि उपज का न्यूनतम बिक्री मूल्य तय करने के सम्बन्ध में समुचित कार्रवाई कर सकती है।
— कृषि सुधारों में बड़े कारपोरेट के अलावा डॉक्टर कुरियन द्वारा स्थापित अमूल जैसे सफल मॉडल को आगे बढ़ाया जा सकता है। जिसमें किसान गुणवत्ता युक्त खाद्यान्न का उत्पादन करेगा, साथ ही उसका वैल्यू एडिशन करेगा और मार्केटिंग करेगा जिससे लाभकारिता उसकी जेब में जाएगी। साथ ही सरकार को कुल आर्थिक सहायता जो लगभग सवा दो लाख करोड़ रुपए है। वर्तमान परिस्थितियों का आकलन करते हुए सरकार द्वारा अप्रत्यक्ष आर्थिक सहायता बंद कर, सीधे प्रत्येक किसान को 25 हज़ार रुपए प्रति हेक्टेयर उसके खाते में देनी चाहिए।
ये भी सच है
यह भी सच है कि जहां उदारीकरण के बाद भानुप्रताप कमेटी सहित अनेकों सरकारी व पार्लियामेंटरी कमेटियों द्वारा कृषि व्यापार को सुगम बनाने के लिए मांग हो रही थी। लेकिन दूसरी ओर यह भी सच है कि वर्ष 1977 में बनी जनता पार्टी सरकार में कृषि राज्य मंत्री रहे श्री भानु प्रताप सिंह जी से लेकर भारत सरकार में कृषि मंत्री रहे श्री चतुरानन मिश्र तक कृषि नीति पर बने दस्तावेज के पेज बिंदु 4 पर लिखा गया है कि "सापेक्ष मूल्यों का रुख किसानों के आहित में रहा है। कृषि उत्पादों के मूल्य दूसरे उत्पादों के मूल्यों के मुकाबले 82 फीसदी से 94 फीसदी के बीच रहे हैं। इस अहितकारी मूल्य प्रणाली के कारण अर्थव्यवस्था के अन्य वर्गों की अपेक्षा किसानों को औसतन 12 फीसदी प्रतिवर्ष घाटा उठाना पड़ा है। इसका सीधा परिणाम यह हुआ है कि लगभग हर 7 वर्ष में कृषि में लगे प्रत्येक व्यक्ति की औसत आय, अन्य व्यवसायियों के मुकाबले आधी होती चली गयी। उसके बाद वर्ष, 2000 में अटल सरकार में कृषि राज्य मंत्री रहे श्री सोमपाल जी द्वारा संसद में रखी गई कृषि नीति में भी कृषि को किसानों के लिए अलाभकारी बताया गया है। संसद में पेश किए गए ड्राफ्ट के पहले पेज पर बिंदु 3 में लिखा गया है कि "लगातार प्रतिकूल मूल्य व्यवस्था तथा निम्न मूल्य संवर्धन के कारण कृषि एक अलार्म व्यवसाय हो गया है, जिसके कारण कृषि से अलग रोजगार प्राप्त करने के लिए लोग कृषि कार्य छोड़ रहे हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन बढ़ रहा है। भूमंडलीय प्रणाली में कृषि व्यापार को जोड़ने की स्थिति में यह हालात और उग्र हो जाएगी। अतः तत्काल उपचारात्मक उपाय करने की आवश्यकता है।"
— यह भी सच है कि किसानों की फसलों के दाम खुले बाजार में सरकार द्वारा तय किए गए 23 फसलों के एमएसपी के मूल्यों से नीचे रहते हैं। जिसके कारण किसान फसलों में लगने वाली अपनी लागत को भी निकाल पाने में सक्षम नहीं है। OECD देशों की एक संस्था का अध्ययन कहता है कि वर्ष 2000 से 2017 के बीच भारत के किसानों को उनकी फसलों का दाम एमएसपी से नीचे रहने के कारण लगभग 45 लाख करोड़ रुपए का घाटा उठाना पड़ा है।
— यह भी सच है कि वर्ष 1970 में कृषि जोत का आकार जो लगभग 2.28 हेक्टेयर था, वह घटकर एक हेक्टेयर से नीचे रह गया है।
— यह भी सच है कि वर्ष, 1970 से वर्तमान तक कृषि भूमि पर आश्रित आबादी का भार लगभग ढाई गुना बढ़ गया है।
— क्या सर छोटू राम जी ने जिन खुले बाजार की विसंगतियों को देखते हुए वर्ष 1934 में एपीएमसी मंडियों का निर्माण कराया था, क्या दोबारा उक्त कानूनों द्वारा की जा रही खुली बाजार व्यवस्था से पुनः वही परिस्थिति उत्पन्न नहीं हो जाएगी।
कानूनों की पृष्ठभूमि
विश्व मंदी के बाद वर्ष, 1986 में गैट नामक संस्था ने यह तय किया था कि अब दुनिया भर के निरंतर गतिशील रहने वाले कृषि क्षेत्र को भी कृषि व्यापार में शामिल किया जाना चाहिए। जिसके लिए विश्व व्यापार संगठन की रचना हुई और विश्व के बड़े कॉरपोरेट के लिए खेती उपज व्यापार में आने वाली अनिश्चितता, अस्थिरता तथा असंतुलन की अवस्था पर नियंत्रण पाने हेतु तथा व्यापार में आने वाली बाधाओं को दूर करने के सुझाव दिए गए थे। तथा विश्व के सभी देशों से कृषि व्यापार में बाधा उत्पन्न करने वाले सभी कानूनों को दरकिनार कर, कृषि व्यापार को सुगम बनाने वाले नए नियम और कानून बनाने के लिए जोर दिया गया।
कृषि नीति
— भारत की आर्थिक राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था में कृषि का महत्व सर्वविदित है। सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 18 फीसदी योगदान, आज भी लगभग 70 फीसदी लोग गांव में रहते हैं जो मुख्य कृषि से जुड़े हुए हैं। देश की कुल जनसंख्या का 65 फीसदी कृषि आधारित या सबसे बड़ा रोजगार देने वाला व्यवसाय है। उद्योगों तथा सेवाओं का तीन चौथाई समाज भी गांव से आता है।
— स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत कृषि क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई है इस तथ्य से भी कोई इनकार नहीं कर सकता है। इस सर्वांगीण प्रगति के मुख्य कारक यह रहे हैं:-
1- कृषि बुवाई क्षेत्र का विस्तार।
2- सिंचाई का विस्तार
3-चकबंदी सहित भूमि सुधार कानून
4- उत्पादकता में वृद्धि।
5-अधिक उत्पादन वाली किस्मों के बीजों का विकास।
6- कृषि अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी मशीनरी नियंत्रण एवं उपकरण आदि फसलों प्रांत प्रौद्योगिकी का विकास एवं प्रयोग।
7 उर्वरकों का उपयोग।
8-कीटनाशकों का उपयोग तथा रोग नियंत्रण।
9- न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं खरीद आधारित कृषि मूल्य नीति।
10-भंडारण शीत भंडारण की व्यवस्था।
11-विपणन पद्धति में सुधार।
12-पूंजी निवेश एवं ऋण व्यवस्था में वृद्धि एवं सुधार।
13- प्रचार प्रसार सेवाओं के द्वारा किसानों को जानकारी देना।
14-ग्रामीण आधारभूत ढांचा सड़क, बिजली, शिक्षा, चिकित्सा आदि का विकास
15—निर्यात प्रोत्साहन
गत 70 वर्षों में कृषि की उन्नति के इतिहास को छह चरणों में बांटा जा सकता है, तथा इन तीनों कानूनी सुधारों को सातवें चरण की शुरुआत माना जाना चाहिए।
—पहला चरण- देश की आजादी के बाद पहला दौर 1947 से 1968 तक का है, जिसमें बुवाई क्षेत्र का विस्तार, सिंचाई के संसाधनों में वृद्धि और भूमि सुधार कानूनों की मुख्य भूमिका रही है।
—दूसरा चरण- वर्ष 1968 से 1980 तक का है, जिसमें अधिक उत्पादन देने वाली बौनी किस्मों, उर्वरकों, कीटनाशकों एवं नवीन तकनीक का प्रयोग हुआ। जिसे हरित क्रांति का प्रादुर्भाव काल कहा जाता है।
—तीसरा चरण- वर्ष 1981 से 1991 तक का है, जिस दौरान कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति, सुनिश्चित सरकारी खरीद और भंडारण एवं वितरण की राष्ट्रव्यापी व्यवस्था हुई।
—चौथा चरण- वर्ष 1991 से 1998 तक उदारीकरण वैश्वीकरण का वह दौर जिसमें विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई तथा औद्योगिक, सेवा क्षेत्र, बौद्धिक संपदा के नियम कायदों के साथ-साथ दुनिया के कृषि क्षेत्र को विश्व व्यापार में शामिल कर बड़े बदलावों की शुरुआत हुई।
—पांचवा चरण- वर्ष 1999 से 2004 तक का रहा, जिसमें परंपरागत जैविक खेती को बढ़ावा देने, ग्रामीण आधारभूत ढांचा निर्माण मसलन सड़क, बिजली, शिक्षा, चिकित्सा आदि के विकास तथा कृषि क्षेत्र में आई विसंगतियों को दूर करने के लिए नवंबर 2004 में प्रोफेसर एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया गया। आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट 4 अक्टूबर 2006 को केंद्र सरकार को सौंप दी।
— छठा चरण- वर्ष, 2014 से मोदी सरकार द्वारा उच्च गुणवत्ता युक्त उत्पादन के साथ-साथ किसानों की आमदनी बढ़ाने पर जोर दिया है। इसके लिए सरकार ने सोयल हेल्थ कार्ड, बूंद- बूंद सिंचाई, नई फसल बीमा योजना सहित अनेकों योजनाओं के साथ-साथ वैल्यू एडिशन और किसानों को सीधे मार्केटिंग से जोड़ने की शुरुआत की है। मोदी सरकार ने आधारभूत संरचना पर अधिक निवेश करने एवं तीन अध्यादेशों के माध्यम से कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधारों के लागू की पहल की है।
— सातवां चरण की शुरुआत — वर्तमान में बनाए गए तीनों कानूनों को जिससे देश की संपूर्ण 130 करोड़ आबादी और कृषि व्यापार प्रभावित होगा, इसलिए इसे देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव माना जाना चाहिए।
( लेखक कृषि मामलों के गहन जानकार एवं दूरदर्शन किसान के संस्थापक सलाहकार, रहे हैं )