श्रीमाता जी का जन्म यूरोप की सांस्कृतिक नगरी पेरिस में दिनांक 21 फरवरी 1878 को एक संभ्रात परिवार में हुआ। नाम रखा गया ‘मीरा। इनके पिता का नाम था मोरिस अल्फांसा जो व्यवसाय से एक बैंकर थे, जबकि उनकी, मां मातिल्डा आधुनिक विचारों की एक सुशिक्षित महिला थीं। इनके बड़े भाई का नाम मातियो था जो पहले अफ्रीका में गर्वनर और बाद में फ्रेंच सरकार के उच्च पदों पर आसीन रहे।
बाल्यकाल से ही मीरा में असाधारण व्यक्तित्व के लक्षण परिलक्षित होते थे। गंभीर स्वभाव,सरल हृदय,निश्छल व्यवहार कुशाग्र बुद्धि से परिपूर्ण,प्रतिभा सम्पन्न तथा दृढ़ निश्चय उनकी विशेषता थी।
पढ़ाई के साथ वह टेनिस भी खेलती थीं। प्रतिभा और विवेक ही नहीं मीरा में एक अलौकिक शक्ति भी थी। निर्भयता और साहस से परिपूर्ण मीरा के विद्यालय में एक उद्दण्ड बालक अक्सर बच्चों को तंग करता था,मीरा ने उसे समझाया पर उसकी ढीठता बढ़ती गयी। यहां तक कि एक दिन वह मीरा की तरफ आक्रामक रूप से बढ़ा अचानक ही मीरा के अन्दर से अद्भुत शक्ति प्रकट हुई और केवल सात वर्ष की मीरा ने अपने से बड़े उस किशोर को उठा कर फेंक दिया।
मीरा में बचपन से ही प्रकृति तथा पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम था, वे ध्यान मग्न हो जातीं और वृक्षों, पशु-पक्षियों की चेतना से जुड़ जातीं। मीरा से पशु पक्षी तथा फूल पौधे अपने सुख दुःख की बातें करते और अपनी रक्षा के लिए विनय भी करते। स्वभाव से गंभीर मीरा प्रायः गहन चिंतन में डूबी रहतीं, उनकी मां प्रायः कहतीं जाने किस चिंता में डूबी रहती है, लगता है, जैसे सारी दुनिया का भार इसके कन्धे पर है। गम्भीर स्वर में मीरा कह उठती, ‘ हां ऐसा ही है। मुझ पर सारी दुनिया का उत्तरदायित्व हैं’।मीरा को जो उचित नहीं लगता उसके लिए उन्हें कोई बाध्य नहीं कर सकता था, वह कहतीं ‘विश्व की कोई भी शक्ति मुझ से अपना आदेश नहीं मनवा सकती ।मैं भगवान की हूँ केवल उन्हीं का आदेश मानती हूं।’
मीरा ने चित्र और कला संगीत का भी प्रशिक्षण लिया था। वे जो भी सीखतीं,पारंगत होने में उन्हें देर न लगती बचपन से ही उन्हें आध्यात्मिक अनूभुतियां होती थीं।
ऐसी ही एक अनूभुति का वर्णन उन्होंने.अपनी डायरी में ( 22 फरवरी 1914) लिखा है “मैं जब 13 वर्ष की बालिका थी, लगभग एक वर्ष तक हर रात को बिस्तर पर लेटते ही मुझे लगता कि मैं अपनी देह से बाहर निकल गई हूं और ऊपर उठ रही हूँ। तब मैं स्वयं को एक शानदार सुनहरे चोगे में लिपटे हुए देखती जो मुझसे कहीं अधिक लम्बा था। ज्योंही मैं ऊपर उठती वह चोगा मेरे चारों ओर से घेरे में चंदोवे की तरह तन जाता और शहर के ऊपर फैल जाता। तब मैं चारों दिशाओं से दुखी स्त्री, पुरूषों,बच्चों, बूढ़ों व बीमार अभागे लोगों को आते हुए देखती और वे सब उस चंदोवे के नीचे एकत्र हो जाते, अपने दुःख संताप सुनाते,अपनी कठिनाइयों का वर्णन करते और उससे सहायता की याचना करते। प्रत्युत्तर में वह नमनीय और जीवंत चोगा हर किसी के निकट झुक जाता और ज्योंही उसे वे छूते मानों संतुष्ट निरोग और आश्वस्त हो जाते तथा स्वस्थ,प्रसन्न और सबल होकर वापस लौट जाते।”
मीरा का एक सपना था कि वह एक ऐसे जगत का निर्माण करेगी जहां लोग अपनी अनिवार्य आवश्कताओं (घर,भोजन वस्त्र) को पूरा करने में व्यस्त नहीं रहेंगे और तब उसे देखना था कि वे लोग इन आवश्कताओं से मुक्त होकर अपने दिव्य जीवन और आंतरिक उपलब्धि की ओर उन्मुख होते हैं या नहीं। कालान्तर में वह ऐसा करने में सफल भी हुईं, पर अफसोस!वो कहती हैं कि वस्तुतः यह जीवन यापन की बेबसी नहीं जो लोगों को आन्तरिक खोज,आत्म साक्षात्कार और महान अभीप्सा से रोकती है बल्कि यह एक तमस भाव शिथिलता और अलसता है।
मीरा को गीता का एक फ्रांसिसी अनुवाद पढ़ने का मौका मिला उन्होंने स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक राज योग भी पढ़ी, उन्हें महसूस हुआ कि उनके सामने कई गहन तथ्य उजागर हो गये हैं।
मीरा गुह्य विद्या का प्रशिक्षण लेने अल्जीरिया गईं। उनके गुरू थियों तो गुह्य विद्या विशारद थे ही, उनकी पत्नी उनसे भी अधिक जानकार थीं। मीरा ने इस विद्या का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया।
मीरा और उनके पति रिशा पॉल ज्ञान पिपासु थे। दर्शन आध्यात्म मंग उनकी रूचि थी। उन्होंने इस दृष्टि से काफी ज्ञान अर्जित भी किया था, किन्तु उनके अन्दर और भी जिज्ञासा थी। दोनों किसी भारतीय गुरू ,योगी या ऋषि से मिलने के लिए उत्सुक रहते थे। 1910 में उनके पति रिशा पॉल किसी राजनीतिक काम से भारत आए। पांडिचेरी में रिशा पॉल ने जीर नायडू तथा श्री निवासाचारी की सहायता से श्री अरविन्द से मुलाकात की। दोनों में दो-तीन घण्टे तक बातें हुई। रिशा पॉल ने मीरा का दिया हुआ प्रतीक चिन्ह श्री अरविन्द को दिखाया और उसका अर्थ पूछा।श्री अरविन्द ने मुस्कुराते हुए उसका अर्थ लिख कर दे दिया।जब मीरा ने प्रतीक का अर्थ देखा तो उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि श्री अरविन्द ही हैं जो स्वप्न में उनका मार्ग दर्शन करते रहे हैं और जिन्हें वे कृष्ण कहती हैं उनकी भारत आने की उत्कंठा और प्रबल हो गयी।
29 मार्च,सन 1914 को उन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ इसी दिन उन्होंने सर्वप्रथम श्री अरविन्द का दर्शन किया और प्रथम दृष्टि में ही उन्हें अपनी सत्ता के स्वामी के रूप में पहचान लिया।
यह मिलन था जिससे इस धरती के दिव्य रूपान्तर की संभावना प्रकट हुई। श्री अरविन्द के दर्शन मात्र से श्रीमां का सम्पूर्ण अतित विलीन हो गया। पूर्ण समर्पण का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।उनके द्वारा लिखित राधा की प्रार्थना ‘इस समर्पण का सजीव चित्रण है –
प्रथम् दृष्टि में ही जिसको पहचान गया अभ्यन्तर,
अपना स्वामी,जीवन का सर्वस्व,हृदय का ईश्वर;
हे मेरे प्रभु,तू मेरी श्रृद्धांजलि स्वीकृत कर, ..,
सर्व भाँति, सम्पूर्ण रूप से तेरी हूँ मैं निश्चय
प्रिय सर्वथा,अशेष रूप में तेरी ही निःसंशय;
तेरी इच्छा से परिचालित होगा मेरा जीवन,
केवल तेरी ही विधि का मैं,नाथ,करूँगी पालन।...
आगे चलकर श्री मां श्री अरविन्द के पूर्ण योग में उनकी सहयोगिनी बनीं।