नहीं, क्यों अन्यथा लूंगा? तुमने क्या अनुचित कहा?
दरअसल, मुझे महसूस हो रहा है कि यह सब नहीं कहना चाहिए था मुझे।
क्यों? क्या इसलिए कि मैं इस संस्थान का अध्यक्ष हूं? इसीलिए असत्य प्रिय बोलना चाहिए? वे हंस पड़े थे।
परंतु
कड़वा सत्य भी तो बोलने से मना किया गया है हमारे नीतिशास्त्रों में। मां
ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। वह भी धीरे-से हंस पड़ी। उसकी आंखों में जीवन डोल
उठते देखा था उन्होंने। बैठो। चाय पीकर जाना। उन्होंने कॉलबेल दबाई थी। वह
कुछ असहज हो उठी। शायद पहला अवसर था जब वह उनके कक्ष में अकेली थी, अन्यथा
अक्सर बैठक अथवा किसी विचार-विमर्श के दौरान अन्य कर्मचारियों के साथ ही
वह उनके कक्ष में बैठती थी। देवयानी की असहजता का अनुमान उन्हें भी हो रहा
था, परंतु स्वयं को तटस्थ रखने का प्रयास करते हुए अपनी मेज पर रखी पत्रिका
उलटने-पलटने लगे थे वे।
देवयानी की आंखें भी कक्ष में चारों
ओर भटक रही थीं। अक्सर ही दिखाई पड़ने वाली दीवारों पर टंगी पेंटिंग और
तिब्बती हस्तशिल्प की कलात्मक अभिव्यक्तियों को ध्यान से देखते हुए उनके नए
अर्थ तलाशने लगी थी देवयानी। सामने ही टंगे एक चित्र पर उसकी दृष्टि ठहर
गई थी। आयताकार झंडे के बीच में प्रकाश बिखेरता सूर्य, जिससे छह लाल और छह
नीली किरणें निकलती हुई दिखाई पड़ रही थीं। वातावरण की बोझिलता को दूर करने
का एक सूत्र मिला था उसे।
सर, इस झंडे में जो सूर्य है उससे
निकलती ये नीली और लाल किरणें किस बात की प्रतीक हैं? प्रश्न टेढ़ा है। वे
हंसे थे। पत्रिका बंद करते हुए आगे कहा-ये तिब्बत की जातियों का एक प्रतीक
है। झंडे में जो ये तीन तरफ पीले रंग का बार्डर है, वह बौद्ध धर्म का
प्रतीक है। इसका तात्पर्य है कि बौद्ध धर्म ही तिब्बत का राष्टÑीय धर्म है?
देवयानी को बातों का सिसिला जारी रखने का अवसर मिला।
बहुत स्पष्ट
है। जैसे इस्लामिक देश होते हैं, हिन्दू राष्ट्र हैं वैसे ही तिब्बत का भी
अपना एक धर्म रहा है। चूंकि इस धर्म की जन्मस्थली भारत है, इसीलिए हम इसे
अपना गुरु देश मानते हैं। इस तरह आप भी हमारी गुरू हैं। वे खिलखिलाकर हंस
पड़े थे। शांत गंभीर चेहरा बच्चों की-सी निर्मलता से दिपदिपा उठा।
अरे गेला, बस, आप भी...देवयानी झेंप उठी। उसे कोई जवाब नहीं सूझा तो उसने पुन: अपनी बात झंडे पर ही केन्द्र्रित कर दी।
अच्छा, यह झंडे में जो सफेद त्रिभुुज है और इसमें दो शेरों के बीच में रत्न की चमकती मशाल है वह भी नि:संदेह कोई प्रतीक ही होगा!
हां,
सफेद त्रिभुुज बर्फीले पर्वत का प्रतीक है, क्योंकि तिब्बत को बर्फभूूमि
माना जाता है। बीच में रत्न की चमकती मशाल को अब मैं अपने ढंग से परिभाषित
करता हूं। चूंकि तिब्बती लोग स्वभाव से ही धर्मगुरु और प्रकृति के पुजारी
रहे हैं इसलिए उन लोगों ने कभी प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं की। रत्नगर्भा
पृथ्वी का दोहन कभी नहीं किया गया, जैसा कि विश्व के अधिकांश राष्टÑ करते
हैं। इसीलिए वहां का पर्यावरणीय पक्ष बहुत समृद्ध था। पर आज चीन उसका
दुरुपयोग कर रहा है। तिब्बत की भूमि पर परमाणु बम बनाना, उसका परीक्षण
करना...और फिर उच्छिष्ट को नदियों में बहाने का काम कर रहा है वह। तिब्बत
के अदो-जोड़, छुसुमजोड़ में सोना, चांदी, क्रोम, अखेस्टोम आदि बहुत मिलते
हैं। उनका चेहरा अपने देश की दुर्दशा याद कर पुन: गंभीर हो उठा।
यह
झंडा तो आपकी निर्वासित सरकार का है न गेला? देवयानी का स्वर कोमल था।
हूं....अपनी दोनों हथेलियों के बीच अपने चेहरे को थाम, मेज पर दोनों
कुहनियों को टिकाकर वे शांत बैठ गए थे। चाय पीकर आज्ञा मांग देवयानी चली
थी, पर उनका शांत चित्त अस्थिर कर गई थी। उनका मन उस दिन के हरे-भरे परंतु
उदास जोत की चढ़ाई-उतराई में पुन: भटकने लगा।
खारु-ला पार होने के
बाद ग्यांची से कुछ दूर छू-शोर-ग्य-पोन् और ल्ह-दाड् गांव था। जम्पा पिताजी
के साथ उंगली पकड़े खारु-ला की चढ़ाई चढ़ रहे थे।
आगे-आगे सामान लादे
खच्चर को पिताजी हांकते चल रहे थे। बहुत थक जाने पर सामान के गट्ठरों पर
उन्हें भी बैठा देते। स्वयं पीछे-पीछे पैदल चलते। खारु-ला से पहले मिट्टी
काली थी इसलिए नदी का पानी भी काला दिखाई देता था। पहाड़ी चोटियों पर
यत्र-तत्र बर्फ दिखाई पड़ रही थी। रास्ते में छोटी-छोटी चट्टानें पड़ी थीं।
दूर तक फैले मैदान में हरी घास उगी थी जिसमें चमरियां और भेड़ें चर रही थीं।
चरवाहों के चेहरे भय और उत्सुकता से भरे हुए दिखाई देते थे। पास के पहाड़
की तलहटी में धूप के छोटे-छोटे पौधों की पंक्तियां दिखाई दे रही थीं। इसे
सुखाकर और इसमें कुछ सुगंध मिलाकर यहां लोग धूपबत्ती बनाते हैं। यह भी उनका
मुख्य व्यवसाय है। पिताजी जम्पा को बातों में उलझाए हुए थे। बीच-बीच में
वे सशंकित दृष्टि से इधर-उधर देख भी लेते थे। क्या उनके घर के बच्चे भी चले
जाएंगे?
जम्पा का प्रश्न शायद पिताजी को बेध गया था। (जारी...)