कुछ लोग नहीं चाहते कि किसानों का आंदोलन समाप्त हो। दिल्ली में जिन लोगों ने सुनियोजित दंगे भड़काए, वही चेहरे किसान आंदोलन में भी नजर आ रहे हैं। आंदोलन में खालिस्तान समर्थक आतंकी संगठन की सक्रियता और आईएसआई गठजोड़ किसी बड़े षड्यंत्र की तरफ संकेत करता है 
कथित किसान आंदोलन में खालिस्तानी आतंकी जरनैल सिंह भिंडरावाला और उसके साथियों का महिमामंडन करने वाली किताब बांटी जा रही है
दिल्ली की सीमाओं पर धरने पर बैठे ‘किसानों’ की जिद वैसी है, जैसा चुनावों में मुंह की खाने के बाद विपक्षी दलों का ईवीएम पर संदेह जताना और पराजय के बाद भी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का हार नहीं मानना। सर्वोच्च न्यायालय के प्रयासों के बावजूद प्रदर्शनकारी किसान इसी जिद पर अड़े हुए हैं कि केंद्र कृषि सुधार कानूनों को वापस ले, अन्यथा उनका धरना जारी रहेगा। उनकी यह जिद न तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में है और न ही देश के। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि सरकार उनकी मांगें मान लेती है तो भविष्य में कोई भी अपनी उचित-अनुचित मांग को लेकर हाईवे बाधित कर सरकार को विवश कर सकता है।
किसानों के शीर्ष अदालत के आदेशों को नहीं मानने से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि धरने पर बैठे अधिकतर लोग असल में हैं कौन। इनकी असली मंशा क्या है! इन्हीं कारणों से किसान आंदोलन को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। यदि अब तक के घटनाक्रम को शृंखलाबद्ध किया जाए तो एक भयावह तस्वीर उभर कर सामने आती है। यह सब देख कर सवाल उठना स्वाभाविक है कि वह कौन-सी शक्ति है जो भारत को अस्थिर कर इसके विकास में बाधा खड़ी करना चाहती है।
गत 12 दिसंबर को कर्नाटक के कोलार स्थित विस्ट्रॉन कॉरपोरेशन में तोड़फोड़ की गई। ताईवान की कंपनी विस्ट्रॉन भारत में एप्पल के उत्पाद बनाती है। तोडफोड़ करने से पहले यह प्रचारित किया गया कि कंपनी और कर्मचारियों के बीच वेतन को लेकर विवाद है। लेकिन यह घटना कई मायनों में अलग थी। विरोध प्रदर्शन में कंपनी के कर्मचारियों के साथ बाहरी लोग भी शामिल थे। हंगामा करने वालों ने तोड़फोड़ की, मशीनों को नुकसान पहुंचाया और फोन भी लूट लिए। इस घटना के बाद विस्ट्रॉन का उत्पादन तो ठप पड़ा ही, विस्ट्रॉन और एप्पल के बीच करार पर भी संशय के बादल मंडराने लगे हैं। जांच में पूरे प्रकरण के पीछे वामपंथी संगठन इंडियन ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) और वामपंथी छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन आॅफ इंडिया (एसएफआई) के नाम सामने आ रहे हैं। कुछ साल पहले वामपंथी इसी तरह जापानी कंपनी मारुति सुजुकी और होंडा कंपनी में भी हिंसा करवा चुके हैं, क्योंकि जापान को चीन का जबरदस्त प्रतिद्वंद्वी माना जाता है। संप्रग सरकार के कार्यकाल में वामपंथियों ने पतंजलि के विरुद्ध झूठ-फरेब के आधार पर जो मोर्चा खोला, लोग उसे भी भूले नहीं हैं। आज पतंजलि स्वदेशी उत्पाद की अग्रणी कंपनी है।
भारत में वामपंथियों की गतिविधियां इनके जन्म से ही संदिग्ध रही हैं। इस संदेह को उस समय बल मिला जब चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने न केवल विस्ट्रॉन में हिंसा की खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया, बल्कि यह संदेश देने का भी प्रयास किया कि भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियां सुरक्षित नहीं हैं। कोरोना के चलते कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन से भारत आना चाहती हैं। विस्ट्रॉन का उदाहरण देकर अखबार की मुख्य संवाददाता चिंगचिंग चेन ने फॉक्सान कंपनी का मजाक उड़ाया जो अपनी आईफोन कंपनी चीन से भारत लेकर आई है। भारत में कृषि क्षेत्र की उत्पादकता दुनिया की तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले काफी कम है। अधिकांश किसानों की गरीबी का यह सबसे बड़ा कारण है। कृषि क्षेत्र की उत्पादकता तब तक नहीं बढ़ेगी, जब तक आधुनिकीकरण के कदम नहीं उठाए जाएंगे। निजी क्षेत्र के सहयोग के बिना सरकार अकेले यह काम नहीं कर सकती।
जाहिर है, कृषि क्षेत्र में निवेश करने वाली कंपनियों के लिए कानून भी बनाने पड़ेंगे। किसानों को बरगलाने वाले वामपंथी ही हैं, जो देश में अस्थिरता का माहौल पैदा करना चाहते हैं। तीनों नए कृषि सुधार कानून किसानों को पुराने तौर-तरीकों से आजाद कर वैश्विक पटल पर ले जाने वाले हैं। इनके विरोध का मतलब है सुधार व विकास के अवसर खुद ही बंद कर लेना। आंदोलन की शुरुआत में कुछ ताकतें भूमिगत थीं, जो अब सामने आ रही हैं। 10 जनवरी को करनाल में हरियाणा के मुख्यमंत्री के कार्यक्रम से पहले प्रदर्शनकारियों ने जो किया, उसके बाद इसे शांतिपूर्ण किसान आंदोलन कहना उचित नहीं होगा। धरने पर बैठे मुट्ठी भर किसान किस आधार पर यह कह सकते हैं कि वे देश के करोड़ों किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं? पूरा जोर लगाने के बाद भी देश के बाकी हिस्सों के किसान इनके साथ क्यों नहीं आ रहे हैं? अब तो ऐसी खबरें आ रही हैं कि धरने में किसानों की संख्या बनाए रखना किसान नेताओं के लिए चुनौती बन गया है। इसलिए प्रदर्शनकारियों को तरह-तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं। किसान नेता राकेश टिकैत कहते हैं कि वे मई 2024 तक धरने पर बैठने को तैयार हैं। आंदोलनकारी केंद्र और हरियाणा में भाजपा सरकार को गिराने की बात कर रहे हैं और जननायक जनता पार्टी को उकसा रहे हैं कि वह मनोहरलाल सरकार से समर्थन वापस ले ले। यही नहीं, किसानों व सरकार के बीच मध्यस्थता के प्रयास में जुटे नानकसर संप्रदाय के बाबा लक्खा सिंह पर तो वामपंथी नेता राशन-पानी लेकर चढ़ चुके हैं।
किसान आंदोलन की फीकी पड़ती चमक का एक और प्रमाण है योगेंद्र यादव का ट्वीट, जिसमें वह शिकायत करते हैं कि हरियाणा के किसान पूरे मन से आंदोलन में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। आलम यह है कि अब किसान कहने लगे हैं कि जब सरकार प्रदर्शनकारियों की मांग के अनुसार कृषि सुधार कानून पर चर्चा व संशोधन करने को तैयार है तो ‘माई-वे या हाईवे’ की जिद का क्या औचित्य है? किसानों को लगने लगा है कि उनके नेता या तो अपने अहं की तुष्टि के लिए या किसी के इशारे पर ‘मैं ना मानूं-मंै ना मानूं’ की माला फेर रहे हैं। उधर, शीर्ष अदालत ने नए कृषि कानूनों पर केंद्र सरकार और किसान संगठनों के बीच जारी गतिरोध को सुलझाने की ठोस पहल की है। तीनों कानूनों के अमल पर फौरी तौर पर रोक लगाना और चार सदस्यीय समिति गठित करना बताता है कि अदालत चाहती है कि हालात नहीं बिगड़ें और हर हाल में इसका शांतिपूर्ण समाधान निकले। लेकिन किसानों की जिद के आगे अदालत का यह प्रयास भी कारगर होता नहीं दिख रहा है। आंदोलन का संचालन कर रही संघर्ष समिति तीनों कानूनों को वापस लेने से इतर कुछ भी मानने को तैयार नहीं है। इसने अदालत द्वारा गठित समिति को ही सरकार समर्थक करार दिया है। किसानों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कृषि कानून वापस लेने के बाद ही वे अपने घर जाएंगे।
किसान आंदोलन की शुरुआत में जो ताकतें
भूमिगत थीं, अब सामने आ रही हैं। 10 जनवरी को करनाल में हरियाणा के
मुख्यमंत्री के कार्यक्रम से पहले जो उपद्रव हुआ, उसके बाद इसे शांतिपूर्ण
किसान आंदोलन कहना उचित नहीं होगा। वे केंद्र और हरियाणा में भाजपा सरकार
को गिराने की बात कर रहे हैं
भाकियू अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, कृषि विशेषज्ञ तथा अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान के प्रमोद कुमार जोशी, कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी व शेतकारी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनवत शीर्ष अदालत द्वारा गठित समिति के सदस्य हैं। ये सभी खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों से भली-भांति परिचित हैं। हालांकि भूपिंदर सिंह मान इस समिति से अलग हो चुके हैं। अदालती फैसले के मुताबिक समिति कृषि कानूनों में मौजूद खामियों को देखेगी और तय करेगी कि इनमें कहां-कहां संशोधन की गुंजाइश है। हालांकि सरकार भी इस तरह की समिति बनाने को तैयार थी, पर किसान संगठन इसके खिलाफ थे। इसका मतलब है कि शीर्ष अदालत ने एक तरह से सरकार के पक्ष मजबूत माना है। शायद यही बात किसान संगठनों को नागवार गुजर रही है। नतीजा, अधिकांश किसान संगठनों ने समिति के सामने न जाने का फैसला लिया है। इसका अंदेशा था भी, क्योंकि जिस तरह अरुंधती राय, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, जोगिंद्र सिंह उगराहां जैसे वामपंथी विचारधारा के लोग आग को हवा दे रहे हैं, उससे इसका आभास तो पहले ही हो गया था कि हल से खेती करने वाले कथित किसान विवाद का हल नहीं निकलने देंगे। इसमें संदेह नहीं कि समिति के सामने यदि किसान संगठन नहीं पहुंचे तो इससे शीर्ष अदालत की छवि को धक्का लग सकता है। इसका सीधा अर्थ यही है कि अदालत के रास्ते इस मामले को अंजाम तक पहुंचाना दिवा-स्वप्न साबित हो सकता है। गौरतलब है कि शाहीन बाग प्रदर्शन के समय भी शीर्ष अदालत ने वार्ताकारों की नियुक्ति की थी, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला था।
शीर्ष अदालत में 12 जनवरी को कृषि कानूनों पर सुनवाई के दौरान सरकारी वकील ने दावा किया कि किसान आंदोलन में खालिस्तान समर्थक आतंकी संगठन घुस आए हैं, जिससे माहौल के बिगड़ने की संभावना है। इससे यह माना जा रहा है कि आईएसआई की शह पर खालिस्तान समर्थक संगठन दिल्ली दंगों की तरह देशभर में बड़े पैमाने पर अशांति फैला सकते हैं। पुलिस का मानना है कि लंबे समय तक इतना बड़ा आंदोलन चलाने के लिए वृहत् योजना और वित्त पोषण की जरूरत होती है। निश्चित तौर पर आंदोलन को परदे के पीछे से मदद मिल रही है। आंदोलन को आईएसआई और खालिस्तानी आतंकी संगठनों द्वारा हाइजैक करने की सूचनाएं मिलने के बाद दिल्ली पुलिस व सुरक्षा एजेंसियां सतर्क हो गई हैं। इस बारे में दिल्ली पुलिस और आईबी के हाथ कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं लगी हैं, लेकिन अभी इन्हें गोपनीय रखा गया है। सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े अधिकारियों के अनुसार, इस आंदोलन को पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों के अमीर किसानों व आढ़तियों ने शुरू किया और धीरे-धीरे गरीब किसानों को भी इससे जोड़ लिया।
पंजाब में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, इसलिए कुछ राजनीतिक पार्टियां गरीब किसानों को भड़का कर इसका फायदा उठाना चाहती हैं। जब आंदोलन ने बड़ा रूप ले लिया तब आईएसआई ने खालिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों के जरिये आंदोलन को हवा देना शुरू कर दिया। दिसंबर के पहले हफ्ते में विशेष शाखा ने दो खालिस्तान समर्थकों और हिज्बुल मुजाहिदीन के तीन आतंकियों को गिरफ्तार किया था। उनसे पूछताछ में पता चला कि पाकिस्तान पंजाब में खालिस्तान आंदोलन को बढ़ावा दे रहा है। उत्तर-पूर्व दिल्ली में सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दंगे कराए गए। इसके लिए वामपंथियों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे मुसलमानों को उकसाया। इसके लिए वित्तीय सहायता दी गई। दंगाइयों को पैसे बांटे गए। दंगे के लिए ऐसा समय चुना गया, जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दिल्ली आए हुए थे। ऐसी योजना इसलिए बनाई गई, ताकि ट्रंप के कारण विदेशी मीडिया भी दंगे को कवर करे और दुनियाभर में भारत की छवि खराब हो। सीएए विरोधी प्रदर्शन से लेकर दंगे भड़काने में जिन लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वही चेहरे किसानों के बीच भी देखे जा रहे हैं जो चिंताजनक है।