19 जनवरी,1989. शैव मत की धरती कश्मीर. घाटी पर पाकिस्तान पोषित हत्यारों की साजिश की शुरुआत. इस सारे दर्द को बयां करती कविता
19 जनवरी,1989. शैव मत की धरती कश्मीर. घाटी पर पाकिस्तान पोषित हत्यारों की साजिश की शुरुआत. साजिश घाटी के मूल निवासी कश्मीरी पंडितों को उनके पुरुखों की जमीन से निकाल बाहर करके निजामे मुस्तफा के बर्बर राज की नींव डालना. मस्जिदों पर टंगे लाउडस्पीकरों से धमकियां दी गईं हिन्दुओं को और वही धमकी छपे पर्चे चिपका दिए गए हिन्दुओं के घरों की चौखटों पर. धमकी थी, 'इस्लाम कुबूल हो, नहीं तो घाटी छोड़ो, बिना औरतों के. ऐसा न करने पर गोलियों से भून दिए जाओगे.
कल तक जिस मुस्तफा को पड़ोसी समझकर टपलू साहब भात खिलाया करते थे, वही आज उनके दरवाजे पर खंजर की मूठ से दस्तक देता हुआ उनकी जान का प्यासा बन बैठा था. और फिर सिलसिला चला लंबा. पंडित न सिर्फ अपने घरों से खदेड़कर देश में विस्थापित बना दिए गए बल्कि उनकी बहु-बेटियों को पाश्विकता का शिकार बनाकर मशीनी आरे से काट डाला गया. निर्वासन अब भी जारी है. इस सारे दर्द को बयां करती, इस पीड़ा को झेल चुके महाराज कृष्ण भरत की यह कविता यहां प्रस्तु़त है-
आ गए तुम 19 जनवरी !
मेरी लाशों का अंबार लेकर
जब जब तुम आओगे
मेरे भीतर
एक उबाल आएगा
एक सवाल आएगा
चिंगारियां आन बैठेंगी मेरे हृदय पर
हवा से गुथमगुथा करता
करवटें बदलता रहेगा
इतिहास का एक एक पन्ना
मेरे भीतर से सांस लेता हुआ
मुझसे ही पूछेगा
उस रात की व्यथा
मैं क्या उत्तर दूंगा
ललितादित्य के शौर्य को
कृपाराम के तेज को
बीरबल के विवेक को
श्रीर्यभट्ट के वैद्य को
19 जनवरी !
ऐसे मत आना सफेद चादरों को ओढ़कर
मुझ पर अट्हास करने
मेरे ही सच को सफेद करने
मेरी अर्थियों को कंधा देकर
मेरे हत्यारों को छिपाने का पाप न करना
मुझ पर विलाप न करना
किलकारी में छिपी
उस क्रुद्ध तान को सुनने ज़रूर आना
इस बार
मैं अकेला नहीं हूं
मेरे साथ
सांसों का एक कारवां है !