
पटना शहर में स्थापित अकाल तख्त श्री पटना साहिब: गुरु गोबिंद सिंह जी की पावन जन्मस्थली
जन्मस्थली श्री पटना साहिब
बिहार की राजधानी पटना शहर में स्थापित अकाल तख्त श्री पटना साहिब गुरु
गोबिंद सिंह जी की पावन जन्मस्थली के रूप में समूची दुनिया में विख्यात है।
आज से 350 साल पहले 1666 ई़ में पौष सुदी की सातवीं तिथि को यहीं पर नवें
गुरु तेगबहादुर जी के पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ था। देश के पांच
शीर्ष अकाल तख्तों में शामिल इस गुरुद्वारे में गोबिंद सिंह जी द्वारा
हस्ताक्षर की हुई गुरु ग्रंथ साहिब, उनके बालपन का पालना (झूला), बचपन की
तलवार, लोहे के तीर, चकरी, कंघा और पादुका आदि वस्तुएं रखी हैं। इस
विख्यात तीर्थ की एक अन्य विशिष्टता यह है कि इस गुरुद्वारे की दीवारें
पटना के नगर देवी पाटन के सुप्रसिद्ध मंदिर के साथ, काली मंदिर, दिगंबर जैन
मंदिर तथा शाइस्ता खां और मीर जाफर की मस्जिद से सटी हुई हैं। इस दृष्टि
से अकाल तख्त श्री पटना साहिब को सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल कहा जाए तो
कोई अत्युक्ति नहीं होगी। लगभग 108 फुट ऊंचा यह भव्य सतमंजिला गुरुद्वारा
सिख मतावलंबियों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। इस पवित्र तीर्थ पर
प्रतिदिन बड़ी संख्या में हर मत-पंथ के अनुयायी जुटते हैं। गुरुओं के प्रकाश
पर्व और शहीदी दिवस के साथ बैसाखी पर यहां की रौनक देखते ही बनती है। इन
दिनों पटना शहर में खालसा के संस्थापक गुरु गोबिंद सिंह के 350वें जयंती
समारोह की तैयारियां खूब जोर-शोर से चल रही हैं।
श्री केशगढ़ साहिब (आनंदपुर साहिब)

पंजाब में जिला मुख्यालय रूपनगर से लगभग 40 किलोमीटर दूर शिवालिक पहाड़ियों
की गोद में सतलज नदी के पूर्वी किनारे पर बसा आनंदपुर साहिब सुप्रसिद्ध
स्थल है। देश के पांच उच्चतम सिख संस्थानों में शुमार इस गुरुद्वारे का
निर्माण 1665 में गुरु तेग बहादुर जी ने कराया था। यहां गुरु गोबिंद सिंह
जी ने अपने मामा पालचंद के संरक्षण में शुरुआती शिक्षा-दीक्षा के साथ न
सिर्फ स्वयं अस्त्र-शस्त्र चलाने में प्रवीणता हासिल की, वरन् आनंदपुर को
एक अजेय सैन्य केन्द्र के रूप में विकसित किया। उन्होंने 1699 में बैसाखी
के दिन यहां खालसा पंथ की बुनियाद रखी और इस स्थान को केशगढ़ साहिब का नाम
दिया। यहां से उन्होंने न सिर्फ स्थानीय पर्वतीय राजाओं को पराजित कर अपने
शौर्य का परिचय दिया, वरन् दो बार मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना को भी हार
का स्वाद चखाया। हालांकि बाद में मुगल सेना ने छल से चमकौर में उनके काफिले
पर आक्रमण कर दिया जिसमें उनके दोनों बड़े पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए।
जबकि मुगल सेना के हत्थे चढ़े छोटे दोनों पुत्र इस्लाम न स्वीकारने पर दीवार
में जिंदा चिनवा दिए गए। इस स्थान पर गुरु जी से जुड़े कई ऐतिहासिक अवशेष
सुरक्षित हैं।
इनमें उनकी दुधारी तलवार, अमृत तैयार करने के लिए
इस्तेमाल किया गया लोहे का कटोरा और मुगल बादशाह बहादुरशाह द्वारा गुरु को
भेंट की गई एक बंदूक और कई अन्य वस्तुएं शामिल हैं। कालान्तर में महाराजा
रणतीत सिंह ने इस गुरुद्वारे का पुनर्निर्माण और सौंदर्यीकरण कराया था।
दमदमा साहिब

बठिंडा (पंजाब) से 28 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में तलवंडी में स्थित
दमदमा साहिब तख्त भी सिखों के प्रमुख तीर्थों में शामिल है। यह स्थान गुरु
गोबिंद सिंह की काशी के रूप में जाना जाता है। मुगलों से युद्ध के बाद वे
यहां नौ महीने रुके थे। गुरु गोबिंद सिंह नहीं चाहते थे कि सिख समाज में
कोई भी व्यक्ति अनपढ़ रहे। इसलिए उन्होंने इस स्थान को एक शिक्षा केन्द्र के
रूप में विकसित किया और अक्षर ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न शैक्षिक
गतिविधियों के संचालन का केंद्र बनाया। गुरु जी के आदेश और मार्गदर्शन में
उनके एक सहयोगी भाई मीणा सिंह ने सिख समाज को ‘गुरुमुखी’ सिखाने के
उद्देश्य से इस स्थान पर ‘पवित्र मात्रा’ नामक एक ग्रंथ की भी रचना की थी।
कहा जाता है कि गुरु जी के जीवनकाल में यहां देशभर के सिख समाज के लोग
शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इस गुरुद्वारे में गुरु के कई पवित्र लेख और
शैक्षिक वस्तुएं आज भी संग्रहीत हैं। पंजाब सरकार द्वारा यहां स्थापित किए
गए एक स्तंभ पर इस स्थल से जुड़ीं गुरु गोबिंद सिंह की विभिन्न गतिविधियां
और उपलब्धियां अंकित हैं।
श्री पांवटा साहिब

हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में दक्षिणी ओर की तरफ यमुना नदी के तट पर
स्थित गुरुद्वारा पांवटा साहिब गुरु गोबिंद सिंह और उनके एक प्रमुख शिष्य
बंदा बहादुर की स्मृतियों से जुड़ा है। पांवटा का शाब्दिक अर्थ है ‘पैर
जमाने की जगह’। लोग इसे पौंटा साहिब भी बुलाते हैं, जो पांवटा का ही
अपभ्रंश है। गुरु गोबिंद सिंह जी पांवटा साहिब में करीब चार साल रहे थे और
यहीं उन्होंने ‘दसम ग्रंथ’ समेत कई साहित्यिक रचनाएं की थीं। इस गुरुद्वारे
को उनके ऐतिहासिक कवि दरबार का दर्जा हासिल है। कहते हैं कि उस समय के
प्रसिद्ध सूफी संत बुद्धूशाह को गुरु साहिब ने यहां पवित्र कंघा और सिरोपा
बख्शीश दी थी। कलगीधर पातशाह यहां खुद वाणी की सृजना किया करते थे।
उन्होंने ‘जाप साहिब’, ‘चण्डी दी वार’, ‘नाममाला’, ‘बछित्तर’ नाटक आदि अनेक
रचनाएं इस स्थान पर कीं। उनके इस दरबार में 52 कवि भी काव्य रचनाएं किया
करते थे। कहते हैं कि यहां कवियों की विनती पर गुरुजी ने यमुना को शांत
होकर बहने को कहा था। तब से यमुना जी आज भी गुरुजी का हुक्म मान यहां शांति
से बह रही हैं।
इस पवित्र स्थल पर सोने से बनी एक पालकी है जो कि
एक भक्त द्वारा गुरु जी को भेंट दी गई थी। साथ में गुरुद्वारा परिसर में
बने एक संग्रहालय में गुरु जी की कलम और उनके हथियार संरक्षित हैं। इस
पवित्र स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी खुद अपनी दस्तार (पगड़ी) सजाते थे और
दूसरे सुंदर दस्तार सजाने वालों को देखकर प्रसन्न होते और उन्हें सम्मानित
भी करते थे। उनके द्वारा शुरू की गई वह परंपरा आज भी कायम है। यहां बैसाखी
और होला-मोहल्ला के त्योहारों पर सुंदर आयोजन किए जाते हैं जिनकी रौनक
देखते ही बनती है।
श्री हजूर साहिब

दक्षिण
की गंगा कही जाने वाली पावन गोदावरी के तट पर बसे महाराष्टÑ के नांदेड शहर
में स्थित तख्त सचखंड श्री हजूर साहिब विश्वभर में प्रसिद्ध है। 1708 में
सिखों के अंतिम गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने प्रिय घोड़े दिलबाग के साथ यहीं
पर अंतिम सांस ली थी। कहते हैं कि यहीं से उन्होंने औरंगजेब को फारसी भाषा
में एक पत्र लिखा था, जो इतिहास में ‘जफरनामा’ के नाम से विख्यात है। इस
पत्र में वे औरंगजेब को फटकार लगाते हुए लिखते हैं, ‘‘तूने अपने नाम
औरंगजेब नाम को कलंकित किया है। तू सच्चा मुसलमान नहीं है, क्योंकि कुरान
जुल्म के खिलाफ है़.़ सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो
जाएं तभी तलवार को धारण करना चाहिए़.़ क्या हुआ जो तूने मेरे चारों
निर्दोष बच्चे मरवा दिए मगर मैं अभी जिंदा हूं। तेरे राज का खात्मा अब निकट
है़.़।’’ गुरु जी का यह पत्र सिख इतिहास की अमर निधि माना जाता है। कहते
हैं कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब पश्चाताप से भर गया था और कुछ ही समय बाद
उसने शरीर छोड़ दिया।
गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी मृत्यु से पूर्व
उत्तराधिकारी चुनने के बजाय ‘पवित्र ग्रंथ साहिब’ को गुरु मानने का आदेश
दिया। तभी से पवित्र ग्रंथ को गुरु माना जाने लगा। पांच पवित्र तख्तों
(पवित्र सिंहासन) में से एक इस गुरुद्वारे को सचखंड (सत्य का क्षेत्र) नाम
से भी जाना जाता है। यह गुरुद्वारा गुरु गोविन्द सिंह जी के महाप्रयाण स्थल
पर निर्मित है। गुरुद्वारे का आंतरिक कक्ष ‘अंगीठा साहिब’ ठीक उसी स्थान
पर बनाया गया है जहां1708 में गुरु जी का अंतिम संस्कार किया गया था।
श्री हेमकुंड साहिब

उत्तराखंड के चमोली जिले में 15,200 फुट की ऊंचाई पर स्थित गुरुद्वारा
श्री हेमकुंड साहिब गुरु गोबिंद सिंह जी के पूर्वजन्म की स्मृतियों से जुड़ा
पवित्र तीर्थ है। यह गुरुद्वारा हिमालय की सात पहाड़ियों से घिरी बर्फ की
एक झील के किनारे बना है। दसम ग्रंथ के एक अंश ‘विचित्र चरित्र’ में गुरु
जी ने अपने पूर्वजन्म का उल्लेख करते हुए लिखा है,
‘‘हेमकुंट परबत है जहां।
सप्तश्रृंग सोभित है तहां॥
तहं हम अधिक तपस्या साधी।
महाकाल कालिका आराधी॥’’
गुरु जी के मुताबिक उनके पिछले जन्म का नाम दुष्टदमन था। पूर्व जन्म में
उन्होंने हिमालय पर्वत पर सात पहाड़ियों से घिरी हेमकुंड की चोटी पर उस स्थल
पर कठोर तपस्या की थी, जहां त्रेता युग में वीरवर लक्ष्मण और द्वापर में
पाण्डवों ने साधना की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महाकाल ने
उन्हें दर्शन दिए और संसार का कष्ट दूर करने के लिए धरती पर भेजा। परमात्मा
ने मुझे संसार में भेजते समय कहा, ‘मैं अपना सुत तोहि निवाजा, पंथ प्रचुर
करबे कह साजा।’ इस तरह ईश्वरीय कार्य के निमित्त उन्होंने धरती पर जन्म
लिया और धर्म राज्य की स्थापना के लिए दुष्टों का संहार किया।
वर्तमान समय में हेमकुंड साहिब में गुरु गोबिंद सिंह की स्मृति में एक भव्य
गुरुद्वारा स्थापित है, जहां प्रतिवर्ष हजारों लोग आते हैं। गौरतलब है कि
बर्फीला क्षेत्र होने के कारण यह गुरुद्वारा साल में मात्र तीन माह (जुलाई
से सितंबर) ही खुलता है।
श्री अकाल तख्त

अमृतसर का स्वर्ण मंदिर 16वीं शताब्दी में पांचवें गुरु अर्जुन देव द्वारा
बनवाया गया। यह गुरुद्वारा वर्तमान समय में सिख समाज की गतिविधियों का
प्रमुख केन्द्र माना जाता है। 1708 में गुरु गोबिंद सिंह द्वारा जब मानवी
गुरुओं की परंपरा को समाप्त कर ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को गुरु रूप में मानने
का निर्देश जारी हुआ, तभी से इस अकाल तख्त पर सिख समाज से जुड़े फैसले लेने
का दायित्व है।
प्रकारांतर से देखें तो इस परंपरा के शुभारंभ का
श्रेय गुरु गोबिंद सिंह जी को जाता है। अमृत सरोवर से घिरे और स्वर्ण छत्र
से सुशोभित इस विश्वविख्यात तीर्थ में सालभर देशी-विदेशी श्रद्धालुओं का
रेला लगा रहता है।