झारखंड: बयान तो बस बहाना है, ईसाइयत फैलाना है
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हार्वर्ड
के अपने कथित व्याख्यान में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने कहा कि
आदिवासी कभी न हिन्दू थे और न हैं। दरअसल सोरेन इस बयान से चर्च और
कांग्रेस की उम्मीदों को पूरा करने की कोशिश कर रहे थे, जिसके
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन हासिल कर वे सत्ता में आने में सफल रहे हैं
झारखण्ड
में जैसे ही कांग्रेस समर्थित सरकार सत्ता में आयी, लगा यहां के ईसाई
मिशनरियों के दिन बहुर गए। उसी समय आर्च बिशप फेलिक्स टोप्पो ने बयान दिया
था, “पिछली सरकार में हम लोग तनाव में रहते थे। उम्मीद है कि नई सरकार में
हमें ज्यादा समर्थन मिलेगा। पिछली सरकार में मिशन के कामों की गति धीमी पड़
गई थी। सरकार की ओर से ज्यादा बाधा आ रही थी, नई सरकार मिशन के कामों को
समर्थन देगी।” ज़ाहिर है सरकार किसी भी दल की रहे, उसे भारतीय संविधान के
दायरे में रह कर ही काम करना होता है। तो किसी गैर कांग्रेसी सरकारों से
आखिर समस्या क्या होती है विदेशी मत संक्रामकों को ? इसका सीधा सा जवाब है
कि ये सभी कथित प्रचारक मूलतः कांग्रेस की अंदरुनी और बाहरी राजनीति का
हिस्सा हैं। जब भी कांग्रेस सत्ता में होगी तो सबसे अधिक वह हिंदुत्व को
नुकसान पहुंचाने की कोशिश करती। बहाने चाहे जो भी हो।
पिछले दिनों
हार्वर्ड के अपने कथित व्याख्यान में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन
उसी कांग्रेसी उम्मीदों को पूरा करने की कोशिश कर रहे थे; वही ‘मिशन के
कामों में पड़ रही धीमी गति’ की रफ़्तार तेज करने की कोशिश कर रहे थे, जिसके
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वादों के कारण सोरेन, कांग्रेस और उसके इको सिस्टम का
समर्थन हासिल कर सत्ता में आने में सफल रहे हैं। सोरेन ने अपने कथित
व्याख्यान में कहा कि आदिवासी कभी न हिन्दू थे और न हैं। और वे इसी सन्दर्भ
में कथित सरना धर्म की वकालत करने लगे। इससे पहले झारखंड की विधानसभा में
इस आशय का एक प्रस्ताव पारित कर आज़ादी के बाद से चले आ रहे जनगणना में
मनमाने बदलाव का प्रस्ताव भी रखा गया है।
झारखंड का यह अकेला मामला
है भी नहीं और न ही यह केवल एक क्षेत्रीय दल के अनुभवहीन मुख्यमंत्री
द्वारा अनजाने में उठा लिया गया मुद्दा है। वास्तव में कांग्रेस की सारी
राजनीति ही हिन्दू एकता को ख़त्म करने की बुनियाद पर टिकी है। उसे हमेशा यह
लगता है कि केवल सनातन एकता ही एकमात्र ऐसा अस्त्र है, जिसका सामना वह किसी
भी कीमत नहीं कर पा रही है। इसी एकता की बदौलत तो वह अपने छिपे वैश्विक
एजेंडे को लागू नहीं कर पा रही है और अपने अस्तित्व की रक्षा करने में विफल
भी हो रही है वह अलग। दशकों तक एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस अगर आज
केंद्र में विपक्ष तक की मान्यता को कायम नहीं रख पायी, अगर आज अपने दम पर
केवल तीन राज्यों में सिमट गयी है, तो महज़ इसलिए कि सनातन ने इसके मंसूबे
को पहचान लिया है। इसलिए कहीं भी चंद दिनों के लिए भी सत्ता में आने पर
इसकी प्राथमिकता होती है हिन्दू ताना-बाना को नुकसान पहुचाना।
याद
कीजिये-मध्य प्रदेश में कमज़ोर बहुमत के साथ कुछ समय के लिए ही आयी कांग्रेस
की कमलनाथ सरकार ने साफ़ तौर पर धमकी दी थी कि अगर आदिवासियों को हिन्दू
कहा गया तो वे मुकदमा कर देंगे। अभी-अभी सत्ता से जाने का एक कारण
पुद्दुचेरी के निवर्तमान मुख्यमंत्री ने ‘हिन्दी’ को बताया है। छत्तीसगढ़
में वहां के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राजनीतिक विवशतावश भले स्वयं हिन्दू
विरोध नहीं कर पा रहे है तो अपने पिता के माध्यम से उनका सनातन विरोधी
अभियान जारी है। देश भर में घूम-घूम कर आये दिन सीनियर बघेल भगवान श्रीराम
के बारे में अनर्गल प्रलाप करते हुए पाए जाते हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस
समर्थित सरकार में पालघर में नृशंस तरीके से संतों की लिंचिंग की गयी और
मामूली घटनाओं पर भी चिल्लाते रहने वाली कांग्रेस इस पर चुप रही। न केवल
चुप रही अपितु इसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों को सड़क पर पिटवाने से
लेकर उन्हें गिरफ्तार करने और हर तरह की बर्बरता पर उतारू हुई। एक लोकप्रिय
अभिनेत्री का घर तक तोड़ दिया, यह किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस शासित
पंजाब में भी कथित किसान आन्दोलन के नाम पर जिस तरह नुकसान करने की साज़िश
की जा रही है, वह भी सबने देखा। जब गणतंत्र दिवस जैसे पावन मौके पर पंथ
विशेष का झंडा लाल किले पर फहरा कर विभेद पैदा करने की कोशिश और उस उपद्रव
का कांग्रेस द्वारा समर्थन भी सबने देखा।
वापस झारखंड की तरफ लौटें
तो भाजपा की पिछली सरकार ने भय या लालच से कन्वर्जन को दंडनीय अपराध बनाने
का क़ानून पास कर मिशनरियों और कांग्रेस के लिए परेशानियां पैदा कर दी थीं,
जिसका जिक्र पादरी द्वारा किये जाने का ऊपर विवरण है। प्रदेश में जहां 26
प्रतिशत से अधिक आदिवासी हैं, वहां लाख कोशिशों के बावजूद 3 प्रतिशत से
अधिक लोगों का कन्वर्जन नहीं कर पाये ये (हालांकि यह संख्या भी चिंताजनक
है)। तो इसीलिए कि सनातन से नाभि-नाल की तरह आदिवासियों का भी जुड़ाव है।
हां, यह ज़रूर है कि ईसाई बन जाने पर भी आदिवासियों को प्राप्त आरक्षण का
लाभ उठा कर मतांतरित ईसाई समूह ही सारे अवसर हड़प लेते हैं। ज़ाहिर है यही
समूह शासकीय सेवाओं से लेकर हर महत्वपूर्ण जगह पर काबिज है और यही
कांग्रेस/झामुमो का वोट बैंक भी है। अतः आदिवासियों की भारतीय पहचान को
छिन्न-भिन्न करने की साज़िश में इस तरह की कवायद सोची-समझी रणनीति के तहत की
जाती है।
ऐसा हिन्दू द्रोही बयान देने से पहले सीएम सोरेन ने
बाकायदा पहले कथित सरना धर्म का पासा फेका। ऐसा इसलिए क्योंकि ईसाई
मिशनरियों और कांग्रेस के मंसूबों को सबसे अधिक इसी समुदाय ने विफल किया
है। इसी समुदाय के कारण आज भी झारखंड के आदिवासी ईसाई होने से बचे हुए हैं।
पिछले दिनों एक गढ़खटंगा नामक एक गांव में आदिवासियों की जमीन पर कब्ज़ा कर
बने चर्च को तोड़कर वहां ग्रामीणों ने अपना सामुदायिक भवन बना लिया। लगातार
वहां मिशनरियों का विरोध इस समुदाय के लोग करते रहे हैं। इसीलिए बांटों और
राज करो की पुरानी नीति के तहत ऐसे तमाम कार्य किये जा रहे हैं। सरना
समुदाय ही चुनाव के दौरान यह मांग करते हैं कि जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं,
उन्हें आरक्षण के दायरे से निकाल देना चाहिए। ऐसा होने पर निश्चित ही
कन्वर्जन की रफ़्तार को बड़ा धक्का लगेगा। साथ ही गैर भाजपा दलों का वोट बैंक
भी दरक जाएगा। ईसाई मिशनरियां यह भी भलीभांति जानती हैं कि उन्हीं के
खिलाफ बिरसा भगवान द्वारा फूंके गए बिगुल ने अंततः समूचे अंचल में, देश को
गुलाम बनाए फिरंगियों के खिलाफ आन्दोलन का रूप ले लिया था। अतः तमाम हिन्दू
द्रोही तत्वों की आंखों में ये खटक रहे हैं।
सो, सवाल केवल
प्रादेशिक वोट बैंक तक भी सीमित है ऐसा है नहीं। यह स्पष्ट तथ्य है कि
कन्वर्जन महज़ पूजा पद्धति को बदल लेना नहीं होता है। सबसे लचीला और उदार
सनातन धर्म के भीतर तो एक परिवार में ही आपको अनेक पूजा पद्धतियां दिखेंगी।
एक ही घर में शैव, शाक्त, निम्बार्की, वैष्णव, प्रकृति पूजक, नास्तिक...
सभी दिखेंगे आपको। लेकिन यह सहजता कभी विदेशी मतों के साथ भारत में नहीं हो
पाई तो इसका सबसे बड़ा कारण है कि उनके द्वारा कराया जाता कन्वर्जन।
कन्वर्जन वस्तुतः राष्ट्रान्तरण की ही प्रक्रिया है। इसका दंश भारत विभाजन
के रूप में पहले ही हमने देखा है। हिंदुत्व के ताना-बाना को छिन्न-भिन्न
करने की कोशिशों का यही वैश्विक निहितार्थ हैं। इन्हीं निहितार्थों का
प्रकटीकरण देश से बाहर के मंच पर किया है हेमंत सोरेन ने। अन्यथा जैसा की
झारखंड के एक वरिष्ठ पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं– चुनाव के
दौरान और उसके बाद भी मंदिर-मंदिर घूम रहे हेमंत अगर आज ऐसा कुछ कहने पर
विवश हुए हैं तो उन पर लादे गए अप्रत्यक्ष दबाव की कल्पना की जा सकती है।
वे बट्टे हैं- यही सोरेन न केवल देवघर, छिन्नमस्तिका, तारा पीठ समेत सभी
मंदिरों में अपनी आस्था का परिचय देते घूम रहे थे, बल्कि, अपने बच्चे का
मुंडन भी इन्होंने राजाप्पा मंदिर में कराया था। बकौल पत्रकार,‘स्वयं हेमंत
का मुंडन भी विधि-विधान से इसी मंदिर में हुआ था।’
ऐसे में सोरेन
के कथित हार्वर्ड में दिए बयान के मतलब को राष्ट्रीय/वैश्विक परिप्रेक्ष्य
में समझने की ज़रूरत है। इस बयान को महज़ किसी के द्वारा लिख कर दिया भाषण पढ़
लेने के वैशाखी पर टिके एक अल्प समझ मुख्यमंत्री की गलती समझ लेना नासमझी
ही होगी। सभी राष्ट्रीय एजेंसियों को चाहिए कि इसके भीतर की सभी साजिशों पर
नज़र बनाए रखें। ऐसी तमाम हरकतों का विरोध हर स्तर पर किया जाना राष्ट्रीय
अखण्डता और संप्रभुता के लिए भी आवश्यक होगा। इसी वर्ष की शुरुआत का यह
किस्सा तो सबकी जुबान पर है ही, जब चर्च जाने पर सीएम हेमंत सोरेन को पादरी
ने कहा था, ‘हम काफी वर्षों से आपका इंतज़ार कर रहे थे।’ यह प्रतीक्षा नाहक
ही नही थी। उनकी प्रतीक्षा लम्बी होती जाए, यह कोशिश करते रहना सभी
राष्ट्रभावियों का दायित्व है।