पूनम नेगीकुम्भ जैसे पर्व मनुष्य को आत्मोत्कर्ष के ऐसे ही सुअवसर उपलब्ध कराते हैं।मनुष्य के अंतस में मन, आत्मा और बुद्धि के संतुलित होने पर उस पर ज्ञान गंगा की अमृत वर्षा होती है। कुम्भ के अमृतरूपी जल के स्पर्श मात्र से मनुष्य के जन्म-जन्मांतरों के पाप कट जाते हैं; यही है आस्था सनातनधर्मियों की कुंभ पर्व के दौरान हरिद्वार में लाखों श्रद्धालुओं की उपस्थिति दैवीय आभास कराती है (फाइल चित्र)
सनातन धर्म में कुम्भ यानी कलश को पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। पूर्णता के इस चरम लक्ष्य की प्राप्ति का सर्वसुलभ उपाय बताकर वैदिक ऋषियों ने कुम्भ पर्व की गरिमा का बखान किया है। माना जाता है जैसे कुम्भकार पंच तत्वों से कुम्भ की संरचना करता है, उसी प्रकार पंच तत्वों से इस सृष्टि का सृजन हुआ है। आध्यात्मिक चेतना से जुड़ा अमृतपर्व कुम्भ हमारे राष्ट्र के समन्वयात्मक सांस्कृतिक जीवन का व्यावहारिक आधार है।
हर सनातन धर्मावलम्बी समुद्र से अमृत पाने की कामना से सागर मंथन, उससे चौदह रत्न और अंत में अमृत निकलने की अंतर्कथा करीब-करीब जानता है। इस पौराणिक कथानक के अनुसार अमृत पाने के द्वंद्व में देवों व दानवों के बीच लगातार बारह वर्ष तक घनघोर युद्ध चला। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश की सुरक्षा में तैनात इंद्र के पुत्र जयन्त के इधर-उधर छिपते समय कलश से अमृत की कुछ बूंदें धरती के चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जयिनी और नासिक में गिरीं। कालान्तर में इन्हीं चार स्थानों पर निर्धारित मुहूर्त में कुम्भ पर्व के आयोजन की परंपरा पड़ी। ज्योतिर्विदों के अनुसार इस महापर्व का सीधा संबंध सौरमण्डल के ग्रहों की गति से है। सौरमण्डल के विशिष्ट ग्रहों के विशेष राशियों में पहुंचने पर बने खगोलीय संयोगों के कारण इस महापर्व का आयोजन होता है। कुम्भ कारक ग्रहों में तीन प्रधान ग्रह हैं-वृहस्पति, सूर्य व चन्द्रमा। ये तीनों ग्रह जब किन्हीं निश्चित राशियों में क्रमश: संक्रमण करते हैं तो कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। अथर्ववेद में ‘चतुर: कुम्भाश्चतुर्था दधामि’ कहकर इन चारों कुम्भ का सविस्तार वर्णन किया गया है।
कुम्भ पर्व अपने चरित्र और उद्भव में मां गंगा से बेहद गहनता से सम्बद्ध है। गंगा परब्रह्म की प्रतिनिधि हैं। तत्वदर्शी उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की समष्टिरूपा कहते हैं। भारतीय संस्कृति गंगाजल को देवत्व और शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करती है। गंगाजल अमरत्व का कोष है और कुम्भ अमृत पर्व। कुम्भ पर्व के दौरान विश्व के कोने-कोने से उमड़कर आया अपार जनसमूह गंगा में स्नान कर पुण्य ही अर्जित नहीं करता अपितु उन पावन तीर्थों में तपस्वी संतों के ज्ञानामृत का लाभ प्राप्त कर आत्मशुद्धि भी करता है। इसीलिए हमारी संस्कृति में कुम्भ पर्व को सिर्फ स्नान पर्व नहीं, अपितु संपूर्ण समाज की विचार शुद्धि का महान पर्व माना जाता है। साथ ही यह पर्व नदियों की शुद्धता व सुरक्षा के प्रति संकल्पित होने का भी महापर्व है।
कुम्भ जैसे पर्व मनुष्य को आत्मोत्कर्ष के ऐसे ही सुअवसर उपलब्ध कराते हैं। वैदिक दर्शन कुम्भ पर्व की तात्विक विवेचना करते हुए कहता है कि सूर्य आत्मा का, चंद्रमा मन का और वृहस्पति बुद्धि का कारक है। मनुष्य के अंतस में मन, आत्मा और बुद्धि के संतुलित होने पर उस पर ज्ञान गंगा की अमृत वर्षा होती है। कुम्भ के अमृतरूपी जल के स्पर्श मात्र से मनुष्य के जन्म-जन्मांतरों के पाप कट जाते हैं; यही आस्था सनातनधर्मियों की सबसे बड़ी शक्ति है। कुम्भ मेला महज एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है अपितु यह दर्शन, विज्ञान एवं संस्कृति का वह अनुष्ठान है जो सदियों से समय के साथ कदमताल करते हुए नित नए विचार तत्वों और संदर्भों की तलाश के साथ प्रवाहमान है। शास्त्रों में कुम्भ स्नान का महत्व बताते हुए कहा गया है कि एक हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वाजपेय यज्ञ, एक लाख बार भूमि की परिक्रमा करने जितना पुण्य कुम्भ स्नान कर प्राप्त होता है।
शास्त्र कहते है- ‘कुं भूमिं उभ्यति गन्धेन पूरयति इति कुम्भ:।’अर्थात् जब कोई विशिष्ट भूमि किसी विशेष प्रकार की गंध यानी गुण से पूर्ण हो जाती है तो उसे कुम्भ कहते हैं। पुण्य तीर्थ क्षेत्र हरिद्वार की भूमि इस समय धर्म के स्वर्गीय गुणों से परिपूर्ण हो रही है। तभी तो देश-दुनिया के धर्मप्राण मनीषी व श्रद्धालु इस पावन तीर्थ पर कुम्भ स्नान को जुट रहे हैं। गत जनवरी से आरम्भ हुआ यह पर्व अप्रैल माह तक चलेगा। इस वर्ष भी कुंभ महापर्व को लेकर एक अनूठा उत्साह दिख रहा है। हालांकि कोरोना महामारी के कारण कुछ मर्यादाएं अवश्य होंगी पर कुंभ की महत्ता जस की तस रहने वाली है।