इस समय पश्चिम बंगाल 5,00,000 करोड़ रु. के कर्ज से दबा हुआ है। हालत ऐसी है कि राज्य सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दे पा रही । उद्योग-धंधे बंद हो रहे हैं। लोग बेरोजगारी से परेशान हैं। जो थोड़ा-बहुत रोजगार बचा है, उस पर बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए कब्जा कर रहे कोलकाता में हाथ रिक्शा चलाता बुजुर्ग। राज्य सरकार इन बुजुर्गों को बैटरी-चालित रिक्शा देने में असमर्थ
हर बार की तरह इस बार भी पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में राज्य की आर्थिक बदहाली प्रमुख मुद्दा है। सच में देखा जाए तो राजनीतिक दलों को इसे ही सबसे बड़ा मुद्दा बनाना चाहिए। पश्चिम बंगाल आर्थिक रूप से बिल्कुल कंगाल हो गया है। हालात इतने खराब हैं कि राज्य सरकार अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही। और शायद पश्चिम बंगाल एकमात्र ऐसा राज्य है, जो अपने कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग के अनुसार अभी तक वेतन नहीं दे रहा है। राज्य सरकार के पास पैसा ही नहीं है, तो वह दे कहां से? इसका यह मतलब कतई नहीं है कि राज्य को आमदनी नहीं हो रही, पर भ्रष्टाचार इस कदर है कि सरकार की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचारियों की जेब में चला जाता है। कारोबारी भी सरकार की कुनीतियों और बिगड़ती कानून-व्यवस्था के कारण राज्य से बाहर चले गए हैं। उन्होंने बंगाल से अपना कारोबार समेटकर दूसरे राज्यों में काम शुरू कर दिया है। इसका दुष्परिणाम बंगाल के लोग भुगत रहे हैं। कंपनियों के बंद होने से लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं। आज राज्य में बेरोजगारी दर 17 प्रतिशत से ऊपर है।
बंगाल की ऐसी हालत एक दिन में नहीं हुई है। इसकी नींव लगभग 50 साल पहले ही पड़ गई थी। 1969 में नक्सल आंदोलन ने जोर पकड़ा। बाद में इसने बंगाल को बर्बाद करने में अहम भूमिका निभाई। फिर 34 वर्ष तक लगातार वाममोर्चे की सरकार रही। इस कालखंड में राज्य सरकार ने उद्योगों के प्रति नकारात्मक रुख अपनाया। परिणाम यह हुआ कि राज्य से पूंजी का पलायन आरंभ हो गया, कल-कारखाने बंद होने लगे। मजदूरों के हित के नाम पर आएदिन हड़ताल होने लगी। लाल झंडे की अपसंस्कृति से परेशान होकर उद्योगपति और सभी बड़े व्यवसायी महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में अपने व्यापार को ले गए। टाटा, बिरला, थापर, सिंघानिया तथा अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपना मुख्यालय मुम्बई या अन्य शहरों को बनाया। नए उद्योग लगने बंद हो गए। जो यहां रह गए उनमें तालाबंदी और हड़ताल की परेशानी से धीरे-धीरे नुकसान होने लगा और ज्यादातर कारखाने घाटे में जाकर बंद होने लगे। 13 मार्च को बंगाल के एक निवासी चयन चटर्जी ने अपने एक ट्वीट के जरिए बंगाल के हालात पर जो बात कही है, वह गौर करने लायक है। वे लिखते हैं, ‘‘1980 के दशक तक कोलकाता दक्षिण एशिया में हौजरी उद्योग का केंद्र था, लेकिन माकपा से जुड़ी सीटू ने 144 दिन की हड़ताल करके हौजरी उद्योग को बर्बाद कर दिया।’’
जब कल-कारखाने बंद होने लगे तो बंगाल के कुशल कारीगर दूसरे राज्यों में जाने लगे। वामपंथियों ने शिक्षण संस्थानों को भी नहीं छोड़ा। वहां भी ऐसी राजनीति शुरू कर दी गई कि शिक्षा की गुणवत्ता खत्म हो गई। परिणाम यह हुआ कि अच्छी शिक्षा के लिए राज्य के विद्यार्थी दूसरे राज्यों में जाने लगे। अस्पतालों पर भी राजनीति हावी हो गई। इस कारण चिकित्सा व्यवस्था चरमरा गई और लोग अच्छी चिकित्सा के लिए दूसरे शहरों में जाने लगे। ऐसे ही जो लोग पढ़े-लिखे थे, वे भी रोजी-रोटी कमाने के लिए बंगाल से बाहर चले गए। उनकी जगह बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों ने ले ली। इसके बाद तो बंगाल का जो पतन शुरू हुआ है, वह अब भी नहीं थमा है। बंगाल के बैंक खाली हैं। जो लोग किसी चीज के लिए ऋण लेना चाहते हैं, उन्हें बैंक ऋण देने से कतरा रहे हैं।
राज्य में न तो कारोबारी रहे और न ही वे लोग, जो कर दे सकते हैं। इसका असर राज्य की आमदनी पर पड़ रहा है। जब सरकार की आमदनी कम हो गई है तो वह कर्ज लेकर राज्य को चला रही है। 2011 में जब वामपंथी शासन का खात्मा हुआ था, उस समय बंगाल पर करीब 2,00,000 करोड़ रुपए का कर्ज था। 10 साल में अब यह कर्ज 5,00,000 करोड़ रुपए से अधिक का हो गया है। तृणमूल सरकार के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के कारण यह कर्ज दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। तृणमूल पार्टी के दलाल तथा असामाजिक तत्व तोलबाजी, सिंडिकेट राज चला रहे हैं। इस कारण बचा-खुचा व्यापार और उद्योग-धंधे भी चौपट हो रहे हैं। कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। प्रति व्यक्ति आय घट रही है। फसल की विपणन व्यवस्था सही नहीं होने के कारण किसान और मछुआरे गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ पा रहे।
बंगाल का हौजरी उद्योग, सोने के गहनों का कारोबार, पटाखों का व्यवसाय, कपड़ों, जूट और चाय का कारोबार सब कुछ ठप है। बंगाल से गहनों का कारोबार मुम्बई और सूरत तथा पटाखा उद्योग शिवकासी चला गया है। सरकार दिखावे के लिए ‘बंग बिजनेस समिट’ करती है। इसके जरिए राज्य सरकार ने दावा किया था कि बंगाल में 10,00,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का निवेश होगा, लेकिन पिछले 10 साल में 10,000 करोड़ रु. का भी निवेश नहीं हुआ है। केंद्र सरकार से जो अनुदान आता है और वित्त आयोग के नियमानुसार केंद्र सरकार ‘कर’ का जो पैसा भेजती है, उसका 50 प्रतिशत से ज्यादा का हिस्सा राज्य के अन्य कामों में खर्च हो जाता है। इस तरह राज्य सरकार के पास विकास के लिए पैसा बचता ही नहीं। पैसा नहीं रहने के कारण न तो सड़कें ठीक होती हैं, न ही अन्य सुविधाएं लोगों तक पहुंच पाती हैं।
(लेखक अर्थशास्त्री और स्वदेशी जागरण मंच के राष्टÑीय सह संयोजक हैं)