बालेन्दु शर्मा दाधीच
3डी प्रिटिंग जैसी ही बायो-प्रिटिंग की तकनीक चिकित्सा की दुनिया में एक नया दौर प्रारंभ करने जा रही है। इसके जरिए मानव शरीर में फिट किए जाने वाले किसी भी अंग को प्रिंट किया जा सकेगा
गुर्दे के प्रत्यारोपण के इंतजार में लाखों लोग हर साल इसलिए मौत के शिकार हो जाते हैं क्योंकि गुर्दे का दान करने वाले लोग इतनी बड़ी संख्या में उपलब्ध नहीं हैं। शरीर के दूसरे अंगों के बारे भी में यही बात कही जा सकती है, जैसे- आँखें। लेकिन भविष्य में में तकनीक इस समस्या का भी समाधान कर सकती है – 3डी प्रिंटिंग जैसी तकनीक के जरिए ऐसे अंगों का निर्माण करके। जी हाँ, इस तकनीक को बायो-प्रिंटिंग कहते हैं जो लगभग 3-डी प्रिंटिंग जैसी ही है। फर्क है तो इस बात का कि यहां पर कोई चीज नहीं, बल्कि इनसानों के भीतर फिट किए जा सकने वाले अंग प्रिंट किये जाते हैं।
कैलिफोर्निया विवि ने चूहे पर किया प्रयोग
अविश्वसनीय लगता है न? लेकिन इस दिशा में बहुत-से प्रयोग किए जा चुके हैं। ताजा प्रयोग कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डियागो में किया गया है। जैसा कि शुरुआती प्रयोगों के मामले में होता है, यह प्रयोग चूहों पर किया गया है और इसके नतीजे चौंकाने वाले हैं। शोधकर्ताओं ने रीढ़ की हड्डी का एक हिस्सा बायो-प्रिंटिंग के जरिए तैयार किया जिसे सर्जरी के दौरान मरीज की रीढ़ में खराब हिस्से की जगह पर फिट किया गया। जैसा कि जिक्र किया जा चुका है, मरीज था एक चूहा। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि प्रयोग सफल रहा। शाओचेन चेन नामक नैनो-इंजीनियरिंग प्रोफेसर और मार्कटस्जीन्स्की नामक तंत्रिकाविज्ञानी की अगुआई वाली टीम ने यह कर दिखाया।
वैज्ञानिकों ने बायो-प्रिंटिंग की इस प्रक्रिया को कुछ इस तरह पूरा किया- पहले उन्होंने बायो-प्रिंटर की मदद से सफ्ट जेल के जरिए रीढ़ की हड्डी के एक छोटे से हिस्से का निर्माण किया। फिर बायो-प्रिंटर की मदद से ही उसके भीतर-बाहर स्टेम कोशिकाओं को भर दिया गया। आप जानते हैं कि स्टेम कोशिकाएँ हमारे शरीर का वह हिस्सा हैं जो खुद को संबंधित अंग के अनुरूप ढालने में सक्षम है। जब रीढ़ की हड्डी का यह त्रिम टुकड़ा तैयार हो गया तो उसे चूहे की पीठ में उस जगह पर फिट कर दिया गया जहां पर असली अंग खराब था। समय बीतने के साथ-साथ यह टुकड़ा न सिर्फ रीढ़ की हड्डी के साथ बहुत अच्छी तरह से जुड़ गया बल्कि उसके आसपास नई कोशिकाएं और अक्षतंतु भी उग आए। ये सब त्रिम रूप से बनाए गए हिस्से से जुड़ गए और कुछ समय बाद सब कुछ इस तरह एक-मेक हो गया जैसे वह रीढ़ की हड्डी का कुदरती हिस्सा हो। उसके बाद वह शरीर के वाहिका तंत्र (सर्कुलेटरी सिस्टम) से भी जुड़ गया और रक्त संचार से लेकर तमाम दूसरी प्रक्रियाएं शुरू हो गई।
अंगों की प्रिंटिंग के लिए जिंदा कोशिकाओं का उपयोग
बायो-प्रिंटिंग चिकित्सा के क्षेत्र में अगली बड़ी क्रांति ला सकती है क्योंकि तब हम किसी भी रोगी के शरीर की जरूरत के हिसाब से एकदम सही आकार में और सही पैमानों पर त्रिम अंगों को प्रिंट कर सकेंगे। बिल्कुल उसी तरह से जैसे कि किसी मशीन में कोई कलपुर्जा एकदम सटीक ढंग से, सही जगह पर फिट किया जाता है। तब शायद अंगदाता के शरीर की प्रति, आयु, ब्लड ग्रुप सीमाएं भी कोई बाधा नहीं बनेंगी क्योंकि हम जरूरत के लिहाज से एकदम सही अंग तैयार करने की स्थिति में होंगे।
दरअसल बायो-प्रिंटिंग में अंगों की प्रिंटिंग के लिए जिंदा कोशिकाओं का प्रयोग होता है। इन्हें बायो-इंक कहा जाता है। इसका इस्तेमाल कंप्यूटर-निर्देशित नलिका के जरिए जिंदा कोशिकाओं की परतें तैयार करने में किया जाता है। हालांकि अब तक बायो-प्रिंटरों में कम से कम 200 माइक्रोन आकार तक ही प्रिंटिंग की जा सकती थी लेकिन सैन डियागो के इस समूह ने सिर्फ 1 माइक्रोन के आकार तक बायो-प्रिंटिंग करने में कामयाबी हासिल की।
लिवर और हृदय की प्रिंटिंग कर चुका है विवि
कैलिफोर्निया विवि की यही टीम पहले त्रिम लिवर और त्रिम हृदय की भी बायो-प्रिंटिंग कर चुकी है। उधर वेकफरेस्ट इन्स्टीट्यूट अफ रिजेनरेटिव मेडिसिन के बायो-इंजीनियरों ने 3-डी प्रिंटेड मस्तिष्क बनाने का प्रयास किया है। उन्होंने एक मस्तिष्क बना भी लिया है जिसे उन्होंने अर्गनइड नाम दिया है क्योंकि फिलहाल यह इनसानी मस्तिष्क की बराबरी करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन टेक्नोलॉजी एकदम सही रास्ते पर बढ़ रही है और ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि कुछ साल बाद हम अपनी जरूरत के लिहाज से खराब या क्षतिग्रस्त अंगों को बदलने में बायो-प्रिंटिंग तकनीक का इस्तेमाल कर सकें। शायद यह उतनी ही सामान्य बन जाएगी जैसे कि अस्पतालों में एक्सरे या फिजियोथेरेपी हुआ करती है।
(लेखक सुप्रसिद्ध तकनीक विशेषज्ञ हैं)
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