दिल मुराद बलोच
अफगानिस्तान में जो हालात हैं, उनका कई मायनों में बलूचिस्तान पर असर पड़ने जा रहा है। यह असर कितना और कैसा होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वहां के हालात कैसे रहते हैं
जैसा अंदाजा था, अफगानिस्तान में हुकूमत पर कब्जे की जद्दोजहद के तेज होने के साथ ही वहां से लोगों का सरहद पार कर बलूचिस्तान के अलग-अलग इलाकों में आना शुरू हो गया है। जाहिर है, आबादी में इस तरह के बदलाव का किसी भी समाज पर असर पड़ता है और बलूचों के सामने भी ऐसे ही हालात हैं। वे इसे देख सकते हैं, इस बदलाव के साथ सामाजिक तौर पर तालमेल बैठाते हुए गुजर-बसर कर सकते हैं।
बलूचिस्तान के कई इलाकों से अफगानों के आने की बात सामने आ रही है। वैसे, जब-जब अफगानिस्तान में कत्लो-गारत का सिलसिला तेज हुआ है, वहां की आबादी का एक हिस्सा दूसरे मुल्कों का रुख करता रहा है। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। अफगान बड़ी तादाद में ईरान और बलूचिस्तान का रुख करने लगे हैं। बलूचिस्तान की कैपिटल क्वेटा ने इसे बखूबी महसूस किया है। माजी (पहले) में भी, जब-जब वहां पर मार-काट तेज हुई, वहां से बाहर का रुख करने वालों में से एक हिस्सा क्वेटा आता रहा है। पिछली बार जब लाखों अफगान वहां से भागे, उस दौर में भी बड़ी तादाद में अफगान क्वेटा आए। आज वहां की डेमोग्राफी बदल चुकी है।
खास भूगोल, खास हालात
अफगानिस्तान की खास ज्योग्राफी की वजह से उसे हार्ट आॅफ एशिया कहा जाता है। यह इलाका दो सुपर पावर के बीच जोर-आजमाइश का अखाड़ा बना और आखिरकार यह सोवियत यूनियन जैसी ताकत के बिखरने का एक बड़ा सबब भी बना। ऐसा अफगानिस्तान मौजूदा सुपर पावर को एक बार फिर यहां खींच लाया, या वह खुद यहां आया। यह सब अफगानिस्तान की ज्योग्राफी की वजह से है। माजी में बरतानिया भी आया ताकि सोवियत यूनियन को आगे बढ़ने से रोका जाए और इसके लिए उसने अफगानिस्तान पर कब्जा करना जरूरी समझा। अब सूरतेहाल यह है कि अमेरिका बोरिया-बिस्तर समेटकर यहां से जा रहा है। लेकिन कई सूरतों में अमेरिका यहां और आसपास के ममालिक (पड़ोसी देशों) में मौजूद रहेगा। इसलिए यह कहना चाहिए कि अमेरिका इस खित्ते को छोड़कर नहीं जा रहा है, वह सिर्फ अफगानिस्तान से जा रहा है।
चौतरफा असर
अफगानिस्तान में जैसे हालात हैं, उनका असर सियासी और सामाजी हालात से लेकर कुछ हद तक कौमी तहरीक पर पड़ेगा। फिलहाल अफगानिस्तान में एक बिल्कुल गैर-यकीनी सूरतेहाल है। अफगानिस्तान ने पहले भी बड़े-बड़े मारकाट के दौर देखे हैं और तालिबान के साथ उसने लंबे अरसे तक हुकूमत पर कब्जे की जंग झेली है। लेकिन उसने मुकाबला जमकर किया है, बेशक कई बार हुकूमत पर पकड़ छूटी भी है। बहरहाल, ऐसे हालात में लाखों लोग अफगानिस्तान से बलूचिस्तान का रुख कर सकते हैं, जैसा माजी में हुआ है। अफगानिस्तान से लोगों के आने का सिलसिला अभी और तेज होने का अंदाजा है। अलग-अलग समय पर आए लाखों अफगान आज भी बलूचिस्तान में मौजूद हैं।
जब लोगों का इस तरह का सैलाब आएगा, तो इसका असर पड़ना लाजिमी है। यह मुतासिर (प्रभावित होना) तो होगा ही क्योंकि सिर्फ लोग नहीं आते, उनके साथ बहुत कुछ आता है। असलाह आते हैं, दीगर तौर-तरीके आते हैं। हमने देखा है कि जब भी अफगानिस्तान में बड़ा बदलाव आया है तो उसका बलूचिस्तान की कौमी तहरीक पर साफ असरात पड़ा है। अफगानिस्तान और बलूचिस्तान की कौमी तहरीक में काफी फर्क है। वहां कत्लो-गारत होती रही है और मुझे लगता है कि वहां तालिबान के पावर में आने या न आने से बलूचिस्तान पर कोई खास असर नहीं पड़ने जा रहा लेकिन चूंकि हम अफगानिस्तान से लंबी सरहद शेयर करते हैं, हमेशा मुश्किल वक्त में एक-दूसरे के यहां आते-जाते रहे हैं, तो किसी हद तक असर तो होगा।
कितना बदला तालिब
अभी वहां अफगानिस्तान की फौज के साथ मुजाहमत (संघर्ष) हो रही है, फिलहाल तो यह कहना मुश्किल है कि तालिबान अफगानिस्तान की हुकूमत पर मुकम्मल कब्जा कर पाएगा या नहीं। वैसे, तालिबान अगर आता है, तो यह सबसे बड़ा मसला तो अफगानिस्तान के लिए है। उससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि इस बार अगर तालिब आता है तो यह वही पुराना तालिब है या उसमें कोई बुनियादी फर्क आया है? जहां तक पाकिस्तान की बात है, अगर तालिबान पुराने अंदाज में चले तो पाकिस्तान अफगानिस्तान पर काफी हद तक असरअंदाज होगा। या यह कहें कि उसके लिए वहां असरअंदाज हो जाना बहुत आसान हो जाएगा।
पाकिस्तान की हमेशा से ख्वाहिश रही है कि अफगानिस्तान में उसके इशारों पर चलने वाली हुकूमत रहे और इसी मंशा के साथ उसने तालिबान को खड़ा किया। पाकिस्तान की बेकरारी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी चंद दिनों पहले पाकिस्तान की फौज सरहद पारकर अफगानिस्तान में घुस गई ताकि तालिबान को किसी तरह हुकूमत पर कब्जा करने में मदद कर सके। तालिबान ने तमाम इलाकों पर कब्जा कर भी लिया है, लेकिन दोबारा से उसे अफगान फौज से कड़ी टक्कर मिलने लगी है।
पाकिस्तान के मसले
लेकिन एक अहम मसला और है। आज तक अफगानिस्तान में जितनी भी हुकूमतें आई हैं, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के जो अहम मसले हैं, वे हल नहीं हो पाए। उनमें सबसे ज्यादा अहम डूरंड लाइन है। तालिबान भी इस लाइन को मानने से परहेज करता है क्योंकि इस लाइन के दोनों ओर रहने वाले ही इसे नहीं मानते। इसीलिए पाकिस्तान हमेशा से इस बात का ख्वाहिशमंद रहा है कि अफगानिस्तान में कोई हुकूमत मजबूत न हो सके, कोई मरकजी (केंद्रीय) ताकत जड़ें गहरी न कर पाए। वजह यह कि अगर किसी मजबूत हुकूमत ने डूरंड लाइन के इस ओर के अफगान आबादी वाले इलाकों पर दावा कर दिया तो उसके लिए हालात और खराब हो जाएंगे। इसीलिए, अफगानिस्तान की मौजूदा सूरतेहाल में तो पाकिस्तान की खुशी देखने लायक है। क्योंकि पाकिस्तान जानता है कि एक कमजोर और बिखरा हुआ अफगानिस्तान हमेशा उसका मोहताज रहेगा। वह डूरंड लाइन जिसे पाकिस्तान सरहद कहता है, उसे अफगानिस्तान तस्लीम नहीं करता है। जो पश्तून कौमी मसले हैं, यकीनी बात है कि उस पर अफगानिस्तान असरअंदाज हो सकता है। पाकिस्तान जानता है कि अगर अफगानिस्तान एक खुदमुख्तार (अपने बारे में खुद फैसला करने में सक्षम) मुल्क बन गया तो उसके लिए बुनियादी मसले हल होने की तो बात छोड़ दें, वे और भी बड़े हो जाएंगे।
इतना तय है कि अफगानिस्तान में जो कुछ भी हो रहा है, उससे बलूचिस्तान अछूता नहीं रह सकता क्योंकि वहां से लोगों का आना शुरू हो गया है। बेशक इसका सियासी तौर पर ज्यादा कुछ असरात नहीं पड़ेगा, लेकिन समाज पर तो पड़ेगा। जाने-माने सहाफी (पत्रकार) सलाम सबर तो मानते हैं कि अफगानिस्तान के हालात पाकिस्तान और बलूचिस्तान में यकीनी मुरतब होंगे। वह कहते हैं, जब भी अफगानिस्तान में मजहबी ताकतें मजबूत हुई हैं, इसका असर न सिर्फ पाकिस्तान और बलूचिस्तान बल्कि ईरान और कश्मीर तक पड़ा है और पूरे खित्ते में मजहबी ताकतें मुनज्जम (संगठित) हुई हैं। बलूचिस्तान में जिस मजहबी तबके को पाकिस्तान की सरपरस्ती हासिल है, उसे भी मजबूती मिलेगी।’
कुल मिलाकर इतना ही कहा जा सकता है कि बलूचिस्तान के समाज पर लंबे समय तक पड़ने वाले असर की शुरुआत हो चुकी है।
प्रस्तुति : अरविन्द (लेखक बलोच नेशनल मूवमेंट के सूचना प्रभारी हैं)
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