इस साल मानसून की बारिश ने उत्तराखंड में फिर से कहर ढाया है। बारिश के दौरान दरकते पहाड़ों ने एक दर्जन से ज्यादा लोगों की जान ले ली है। इस मानसून में इस तरह के भूस्खलन की घटनाएं उत्तराखंड के साथ साथ हिमांचल में भी हुई हैं।
इस साल मानसून की बारिश ने उत्तराखंड में फिर से कहर ढाया है। बारिश के दौरान दरकते पहाड़ों ने एक दर्जन से ज्यादा लोगों की जान ले ली है। इस मानसून में इस तरह के भूस्खलन की घटनाएं उत्तराखंड के साथ साथ हिमांचल में भी हुई हैं।
उत्तराखंड के शिवालिक और हिमालय की पहाड़ियों में 110 से भी ज्यादा स्थानों पर पहाड़ दरकने, बादल फटने की घटनाएं हुई हैं। पिछले कुछ सालों में बादल फटने की घटनाएं ज्यादा हुई थीं। लेकिन इस बार भूस्खलन या पहाड़ दरकने की घटनाओं में वृद्धि हुई है। घटनाएं भी ऐसी हुई हैं कि सड़कों पर लोग यात्रा कर रहे हैं। इस दौरान उनके वाहनों पर पत्थर आकर गिरे और वाहन में बैठे लोगों की जान चली गई। एक घटना में गुरुग्राम से आये पर्यटकों के वाहन पर ही एक बड़ा पत्थर आ गिरा, जिससे पर्यटक दंपति की वही मौत हो गयी।
मानसून की बारिश इस बार अच्छी हुई है। लेकिन साथ ही साथ वह हादसे भी लेकर आई।भूस्खलन से उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों के कई मार्ग बंद पड़े हैं। बीते दिनों नैनीताल जिले में वीरभटी के पास पूरा पहाड़ ही गिर गया। यहां सड़क से गुजर रही रोडवेज की बस से यात्रियों ने भाग कर अपनी जान बचाई। उत्तराखंड के पौड़ी जिले के एक प्रोफेसर की कार पर बोल्डर गिरने से मौत हो गयी।
हिमांचल स्थित किनौर में पिछले माह हुए भूस्खलन हादसे में बस में सवार 25 से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी थी। पौंटा-शिलाई की 4 किमी सड़क पहाड़ के साथ दरक गयी। ऐसी दर्जनों घटनाएं हिमांचल में हुई हैं।
उत्तराखंड में 84 खतरनाक इलाके भूस्खलन की दृष्टि से चिन्हित हैं। पर इनसे कैसे छुटकारा पाया जाएगा, इस दिशा में कोई काम नहीं हो रहा है। इन चिन्हित स्थानों पर ही भूस्खलन की घटनाएं ज्यादा होती रही हैं।
उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड और तमाम सड़क परियोजनाओं पर काम हो रहा है। जेसीबी मशीनों से पहाड़ बिना वैज्ञानिक सोच के काटे जा रहे हैं, जिस कारण भूस्खलन की घटनाएं बढ़ गयी हैं।
क्यों टूट रहे हैं पहाड़ ?
उत्तराखंड और अन्य हिमालयी राज्यों में पिछले कुछ सालों से पहाड़ों के दरकने की वजह क्या हैं ? इस पर देहरादून के वाडिया संस्थान और हिमालय जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट केंद्र और राज्य सरकार को दी थी। संस्थान के निदेशक डॉ काला चंद साई कहते हैं कि सबसे बड़ी वजह ग्लोबल वार्मिंग है। हिमालय में जब बर्फ तेज़ी से पिघलती है तो वह चट्टानों और मिट्टी को मुलायम बनाती है। ताप बढ़ने से गुरुत्वाकर्षण की वजह से पहाड़ की ढलानों पर भूस्खलन होते हैं। कभी—कभी ये गति 260 फुट प्रति सेकंड की दर्ज की गई है।
रिसर्च रिपोर्ट में बताया गया है कि देश मे 12 फीसदी ज़मीन ऐसी है, जहां भूस्खलन होता रहता है। उत्तराखंड, हिमांचल के अलावा केरल, तमिलनाडु, गोआ सहित पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा जम्मू—कश्मीर एवं लद्दाख में भी डेंजर ज़ोन हैं।
कुमायूं विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो.बहादुर सिंह कोटिया कहते हैं कि हिमालय और शिवालिक पहाड़ियों में अनियंत्रित विकास ही भूस्खलन का सबसे बड़ा कारण है। सड़क निर्माण, पावर प्रोजेक्ट्स में वैज्ञानिक सोच का ध्यान नहीं रखा जाता। उत्तराखंड की मनेरी भाली, चमोली की घटनाएं इसका उदाहरण हैं। भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो चारु पंत कहते हैं कि सड़क और जल विद्युत परियोजनाओं में बारूद का इस्तेमाल रोका जाना चाहिए। बारूद से चट्टाने अंदर तक दरकती हैं। बारिश का पानी उनमें भरता रहता है। फिर एक दिन वह फट कर बाहर आ जाता है।
बहरहाल, भूस्खलन के हादसे उत्तराखंड में जानलेवा साबित हो रहे हैं। यह घटनाएं कैसे रुकेंगी, इस पर एक दीर्घकालीन योजना बनाए जाने की जरूरत है।
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