सुधीर कुमार पांडेय
असम के अधिकांश जिलों में बांग्लोदशी घुसपैठियों ने न सिर्फ आम जमीनों पर कब्जा किया बल्कि मंदिरों और जंगलों की भूमि को भी नहीं बख्शा। अब सरकार ने इस घुसपैठ पर अंकुश लगाने की कार्रवाई की है
असम के दरांग से हाल ही में एक खबर आई थी। धौलपुर गोरुखुटी क्षेत्र में अतिक्रमण को हटाने गई पुलिस और स्थानीय लोगों के बीच झड़प हुई। इस घटना में दो लोगों की मौत हो गई, जो दुखद है। पुलिसकर्मी भी घायल हुए। असम सरकार अतिक्रमित जमीन को खाली कराकर वहां कम्युनिटी फार्मिंग करना चाहती है। पुलिस जब कार्रवाई करने गई तो उसे विरोध का सामना करना पड़ा। यह एक तात्कालिक घटना थी और इसे राष्ट्रीय मीडिया में जगह भी मिली। यदि इस घटना का वीडियो वायरल नहीं होता तो यह भी रोज की खबरों की तरह केवल स्थानीय मीडिया में जगह पाती। इस विरोध और घुसपैठ पर नजर डालें तो इसकी जड़ें काफी गहरी दिखती हैं।
असम के मूल निवासी करीब पचास वर्ष से अपनी संस्कृति को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। असम की करीब 267 किलोमीटर सीमा बांग्लादेश से लगती है। जानकार बताते हैं कि कुछ दशक पहले तक भारत-बांग्लादेश की सीमा को पार करना आसान था, क्योंकि चेक पोस्ट और बाड़े की समुचित व्यवस्था नहीं थी। बांग्लादेशी आसानी से भारत में घुसपैठ कर लेते थे। धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ने लगी। 1971 से लेकर 1991 तक की जनगणना का विश्लेषण करें तो इस दौरान असम की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ी। 1971 में यह वृद्धि दर 34.98 प्रतिशत रही तो 1991 में यह 53.26 प्रतिशत पर पहुंच गई। दरांग में यह वृद्धि 36.05 से 89.77 और दिमा हसाओ में 98.30 प्रतिशत हो गई। कामरूप में 44.48 से 81.53 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। जबकि राष्ट्रीय वृद्धि दर 23.5 प्रतिशत ही थी। इस अवधि में मुसलमानों की संख्या 77.42 प्रतिशत की दर से बढ़ी। इस दौरान असम के सभी जिलों में जनसंख्या में एकसाथ तेजी से बढ़ोतरी हुई। इससे संकेत मिलता है कि सीमावर्ती जिले ही नहीं, पूरा राज्य अवैध घुसपैठ की जद में आ गया था। यह समस्या विकराल होती गई। काफी संख्या में बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ से नई समस्या खड़ी हुई। उनके पास रहने के वैध दस्तावेज नहीं थे, इसलिए उन्होंने असम में जमीन का अतिक्रमण करना शुरू कर दिया।
यह है सच्चाई, इसे झुठला नहीं सकते
10 फरवरी, 1997 को बीएसएफ के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल ईएम राममोहन ने एक रिपोर्ट दी थी। इसमें वह लिखते हैं, ‘साल 1968 में अपर पुलिस अधीक्षक के तौर पर मैं नौगांव में तैनात था। तब काजीरंगा और जगी रोड पर बांग्लादेशियों का कोई गांव नहीं बसा था। 1982 में जब मैं डीआईजीपी, उत्तरी रेंज के नाते तेजपुर गया तो मैंने जंगी रोड पर बांग्लादेशी मुसलमानों के पांच गांव बसे देखे। काजीरंगा की जमीन पर भी सैकड़ों झोपड़ियां बन चुकी थीं।’ चावलखोवा द्वीप की 5000 बीघा जमीन का भी उन्होंने उल्लेख किया। असम के तत्कालीन राज्यपाल एसके सिन्हा को भेजी रिपोर्ट में ईएम राममोहन ने लिखा, ‘वर्ष 1971 में इस जमीन पर गोरुखुट और सनुना गांव के असमिया लोग खेती करते थे। जब तेजपुर में मेरी तैनाती हुई तो मैंने देखा कि इस द्वीप पर 10,000 से भी अधिक मुस्लिम घुसपैठियों का कब्जा हो चु्का था। असमिया गांव वालों ने जमीन खाली करवाने की मांग की, लेकिन जिला प्रशासन ने इसे अनसुना कर दिया। हालांकि मंगलादोई तहसील के एक ईमानदार युवा एसडीओ ने जमीन खाली करवाने का प्रयास किया, लेकिन उसका तबादला कर दिया गया।’ यह रिपोर्ट उस समय भारत के राष्ट्रपति रहे के. नारायणन को सौंपी गई थी।
असम की संस्कृति को नष्ट करने का कुत्सित प्रयास
बांग्लादेशी घुसपैठियों ने न केवल जमीन पर अवैध कब्जा किया बल्कि मंदिरों समेत जंगल की भूमि भी अपने कब्जे में ले ली। असम के 33 जिलों में से 9 जिलों में मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत से अधिक हो चुकी है। दरांग को ही लें तो 1971 की जनगणना के हिसाब से मुस्लिम आबादी 16.19 प्रतिशत थी, जोकि 2011 में 64.39 प्रतिशत हो गई। इससे स्पष्ट है कि दरांग में बड़ी संख्या में लोग बाहर से आकर बसे। ये लोग बिना दस्तावेज के जमीन नहीं खरीद सकते, इसलिए घुसपैठियों ने जमीन पर अवैध कब्जा करने की रणनीति अपनाई। धीरे-धीरे असम के मूल निवासियों की पहचान उनकी संस्कृति पर संकट खड़ा होने लगा। असमिया मामलों के जानकार और सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता उपमन्यु हजारिका कहते हैं कि इस पर नियंत्रण नहीं लगाया गया तो वर्ष 2050 तक असम की मूल संस्कृति पर भयानक संकट आ जाएगा।
मंदिर और जंगल की जमीन भी नहीं छोड़ी
नॉर्थ-ईस्ट पॉलिसी इंस्टीट्यूट के अनुसार असम में करीब 914 सत्र हैं। असम सत्र महासभा के अनुसार इनकी संख्या 1200 से अधिक है। इन सत्रों की असम के सांस्कृतिक और धार्मिक मामलों में विशेष भूमिका है। सत्र की कई एकड़ जमीन पर बांग्लादेशी घुसपैठियों का अवैध कब्जा हो चुका है। जंगल की जमीन को भी इन घुसपैठियों ने नहीं छोड़ा। 2019 में भाजपा विधायक पदम हजारिका ने विधानसभा में बताया कि असम की कुल वन भूमि के 22 प्रतिशत पर अतिक्रमण हो चुका है। राज्य के 312 आरक्षित वनों की कुल 13,54,467.62 हेक्टेयर जमीन में से 3,73,876.95 हेक्टेयर पर अवैध कब्जा है। इसी तरह 18 वन्यजीव अभयारण्यों की जमीन पर भी अतिक्रमण किया गया।
इस तरह हुई अवैध कब्जे की शुरुआत
बांग्लादेशी घुसपैठियों ने सबसे पहले ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र पर डेरा डाला। इसके बाद पहाड़ी इलाकों और जंगलों की ओर रुख किया। फॉरेस्ट आॅफ इंडिया के अनुसार 1991 के बाद से असम में 20,000 वर्ग किलोमीटर जंगल समाप्त हो चुका है। 2014 में बोडोलैंड टेरीटोरियल काउंसिल के एक भूमि और भू-राजस्व विभाग के कार्यकारी सदस्य ने एक खुलासा किया था। उन्होंने बताया था कि जनजातीय इलाकों की 3 लाख बीघा जमीन पर अतिक्रमण हो चुका है। 3 लाख बीघा जमीन कम नहीं होती।
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा
1998 में ही असम के तत्कालीन राज्यपाल एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट सौंपी थी। उन्होंने इस रिपोर्ट में उल्लेख किया था कि कई दशकों से पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से बड़े पैमाने पर अवैध प्रवास इस राज्य के जनसांख्यकीय स्वरूप को बदल रहा है। यह असमिया लोगों की मूल पहचान और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों के लिए गंभीर खतरा है। बांग्लादेशी घुसपैठिए न केवल दंगों बल्कि दुष्कर्म समेत कई गंभीर अपराधों में भी शामिल रहे हैं। मई में असम पुलिस ने पांच बांग्लादेशियों की फोटो ट्वीट की थी। सभी आरोपी एक युवती के यौन शोषण में शामिल थे। यूपीए सरकार ने भी वर्ष 2018 में यह स्वीकार किया था कि भारत में आतंकी गतिविधियों में बांग्लादेशी शामिल हैं।
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