मुकुल कानिटकर
सन् 1823 में 100 प्रतिशत साक्षरता वाला देश 1947 में केवल 12 प्रतिशत साक्षरता तक सिमट गया था। भारत के सामने पहली चुनौती यह थी कि हमारे जन-जन को शिक्षित कर सके। शिक्षा को पुन: सर्वव्यापी करने की दृष्टि से प्रयत्न हुए और उसमें गुणवत्ता और नीति में परिवर्तन दुर्लक्षित रहा। 73 वर्ष बाद पहली बार एक ऐसी दृष्टि वाली शिक्षा नीति हमारे सामने आई है जो मैकाले के षड्यंत्र को पूरी तरह से विफल कर सकती है
स्वतंत्र राष्ट्र का जनमानस शिक्षा से बनता है। अत: शिक्षा नीति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। 34 वर्ष के बाद भारत की शिक्षा नीति की घोषणा 29 जुलाई, 2020 को की गई। यह स्वतंत्र भारत की तीसरी शिक्षा नीति है। 1968 और 1986 के बाद अब 2020 में पूरे राष्ट्र के लिए शिक्षा नीति तैयार की गई है।
यह शिक्षा नीति सच्चे अर्थ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति है। पहले जब 17 जनवरी, 2015 में 33 बिंदुओं की घोषणा करते हुए विमर्श प्रारंभ हुआ तब इसे ‘नई शिक्षा नीति’ के रूप में प्रचारित किया गया था। टी.एस.आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में प्रथम समिति की स्थापना भी इसी नाम से हुई थी। किंतु राष्ट्रीय संगठनों के आग्रह और शिक्षाविदों की अनुशंसा पर जब 2017 में कस्तूरीरंगन जी की अध्यक्षता में प्रारूप लेखन समिति का गठन किया गया तब राष्ट्रीय शिक्षा नीति नामकरण किया गया। यह केवल नाम परिवर्तन नहीं, अपितु दृष्टि परिवर्तन है। यह शिक्षा नीति स्वतंत्र भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति है। यहां राष्ट्रीय शब्द को भावात्मक रूप से भी देखा जाना आवश्यक है।
अखिल भारतीय सहभाग से यह नीति बनी है। यह तो सत्य ही है। न भूतो न भविष्यति ऐसा अद्भुत विमर्श इस शिक्षा नीति के निर्माण में हुआ है। ढाई लाख से अधिक ग्राम पंचायतों में विभिन्न कार्यशालाओं के माध्यम से चर्चा हुई। 33 करोड़ से अधिक सहभागियों ने सीधे सुझाव प्रदान किए। सरकारी, गैर-सरकारी, स्वयंसेवी संस्थाओं और संगठनों के माध्यम से नीति पर सर्वांगीण विमर्श के पश्चात अनेक आदर्श तथा व्यावहारिक सुझाव समितियों को प्राप्त हुए। उस आधार पर इस शिक्षा नीति की रचना हुई है। विश्व में किसी भी नीति को बनाने के लिए इतनी बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया आज तक नहीं अपनाई गई। उस अर्थ में यह एक विश्वविक्रम है। जितने लोगों ने शिक्षा नीति पर विचार किया है, वह 120 देशों की जनसंख्या से भी अधिक है। उस अर्थ में यह सर्वव्यापी होने के कारण राष्ट्रीय है ही। सभी राज्य सरकारों, शिक्षा मंत्रियों, विधायकों, सांसदों आदि जनप्रतिनिधियों से भी इतना व्यापक विमर्श किसी नीति के लिए प्रथम बार ही हुआ। राष्ट्रीयता का यह एक परिमाण तो है ही, किंतु शिक्षा नीति के अंतिम अभिलेख (ङ्मिू४ेील्ल३) में अनेक बिन्दु भावात्मक स्तर पर भी इसे राष्ट्र निर्माणकारी शिक्षा नीति बनाते हैं। सांस्कृतिक अर्थ में भी यह शिक्षा नीति राष्ट्रीय है। भारत की मौलिक विचारधारा के अनुरूप अनेक बातें दिखाई देती हैं। पुरानी विदेशी शिक्षा को पूर्णत: परिवर्तित कर भारत केंद्रित, राष्ट्र निर्माणकारी शिक्षा व्यवस्था के निर्माण की नींव इस में हम स्पष्ट देख सकते हैं। उस अर्थ में भी यह शिक्षा नीति ‘राष्ट्रीय’ है। (परिचय, पृ.सं. 4-7)
नीति के अभिलेख में राष्ट्रीयता को अधोरेखित करते कुछ प्रमुख बिन्दु निम्न हैं। (कोष्ठक में दिए अंक राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अभिलेख से उद्धृत हैं) :
1. नाम परिवर्तन: केन्द्रीय मंत्रालय का नाम पुन: एक बार शिक्षा मंत्रालय किया गया है। (25.2) भारतीयता के भाव को ध्यान में रखते हुए हम इस परिवर्तन का स्वागत करते हैं। आगे सुझाव यह है कि संस्कृति भी जोड़ा जाए। स्वतंत्रता के समय शिक्षा एवं संस्कृति मंत्रालय ही था। वर्तमान में संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत लगभग 150 ऐसे संस्थान हैं जो कला शिक्षा के कार्य में संलग्न हैं। दोनों मंत्रालय साथ जुड़ने से शिक्षा एवं संस्कार का कार्य अधिक परिणामकारी और परिपूर्ण होगा।
2. भारतीय भाषा : शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के महत्व को अधोरेखित अवश्य किया गया है। उच्च शिक्षा भी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो, ऐसी अनुशंसा नीति करती है। यह क्रांतिकारी सुधार हो सकता है। अभियांत्रिकी, चिकित्सा जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों सहित सभी पाठ्यक्रमों में भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध कराना आवश्यक है। इससे प्राथमिक कक्षाओं में भारतीय भाषाओं का महत्व बढ़ जाएगा। (22.9 से 11) पूर्व प्राथमिक एवं प्राथमिक स्तर पर प्रथम भाषा अथवा मातृभाषा भी शिक्षा का माध्यम हो, यह बात शालेय शिक्षा के अध्याय में भी है। (4.11) संस्कृत केवल अनेक भाषाओं में से एक न होकर सभी भाषाओं के शुद्ध अध्ययन में उसका महत्व सर्वविदित है। (4.17) इस बिंदु को शिक्षा नीति की प्रस्तावना एवं भाषा वाले अध्याय में तो लिखा है किन्तु त्रिभाषा सूत्र (4.13) को लागू करने से सर्वाधिक अन्याय संस्कृत के साथ ही होता है। प्रादेशिक भाषा और अंग्रेजी अनिवार्य हो जाती है तथा अहिंदी भाषी क्षेत्र में हिन्दी का आग्रह करने पर संस्कृत बाहर हो जाती है। अत: त्रिभाषा सूत्र के अलावा संस्कृत को भाषा विज्ञान की नींव मानकर योग के समान पूर्व प्राथमिक से आठवीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाए।
3. समग्र पाठ्यक्रम : उच्च शालेय स्तर से प्रारम्भ कर उच्च शिक्षा तक सभी वर्ष विशेष विषयों के साथ ही आधे अंकों का समग्र पाठ्यक्रम (ऌङ्म’्र२३्रू उङ्म४१२ी) अनिवार्य किया गया है। (11.1) यह शिक्षा की समग्रता के लिए आवश्यक है। चाहे जिस भी विषय के विशेषज्ञ हमें बनाने हों, कुछ मूलभूत बातें सभी के लिए अनिवार्य होती हैं। देश का इतिहास, भूगोल, उसकी परंपराओं का ज्ञान, साथ ही सामान्य नागरिक नियम, जैसे सड़क पर कैसे चला जाए, स्वच्छता के नियम आदि का भी शिक्षा के औपचारिक रूप में प्रावधान होना आवश्यक है। समय का मूल्य, नियोजन तथा कठोर समय पालन जैसे विषय भी इस समग्र पाठ्यक्रम का अंग बनने चाहिए।
4. भारत बोध पाठ्यक्रम : ‘भारत का ज्ञान’ के अंतर्गत देश के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक ज्ञान के बारे में पाठ्यक्रम की बात भी शिक्षा नीति में की गई है। (4.27) वर्तमान में उत्तर प्रदेश में ‘राष्ट्र गौरव’ नाम से इस प्रकार की पुस्तक शालेय स्तर पर पाठ्यक्रम का अंग है। शिक्षा नीति में भारत की ज्ञान परंपरा, गौरव बिंदु, वैज्ञानिक दृष्टि आदि को सम्मिलित कर एक भारत बोध पाठ्यक्रम हर स्तर पर समाविष्ट करने का प्रावधान है। आवश्यकता है कि इस बीज बिंदु पर तुरंत कार्य करें। ऐसा क्रमिक पाठ्यक्रम तैयार किया जाए ताकि प्राथमिक शिक्षा से ही अर्थात् कक्षा एक से ही परास्नातक (स्रङ्म२३-ॅ१ं४िं३्रङ्मल्ल) तक भारत के बारे में पूरी जानकारी विद्यार्थियों को प्रदान की जा सके। (परिचय, पृ.4)
5. भारत केंद्रित : इस शिक्षा नीति की विशेषता है कि इसमें सभी स्तरों पर भारत को केंद्र में रखा गया है। (पृ. सं. 8, नीति का विजन) भारत की परिस्थितियों के अनुसार नीतियों का प्रावधान है। वैश्विक स्तर तथा प्रतिस्पर्धा की चर्चा तो है किंतु विश्व में स्थान प्राप्त करने के लिए अंधानुकरण की बात नहीं की है। वैश्विक बातों को देशानुकूल कर स्वीकार करने की सम्भावना नीति में है। क्रियान्वयन के समय इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। सभी विद्या शाखाओं के संदर्भीकरण की आज नितांत आवश्यकता है। इसमें चिकित्सा शिक्षा के बारे में विस्तृत योजना दी है, जो भारत की परिस्थिति के अनुरूप है। (20.5) जैसे जिÞला स्तर के प्रत्येक चिकित्सालय को शिक्षा केंद्र बनाने की बात है जिससे पर्याप्त संख्या में आवश्यक चिकित्सकों का निर्माण किया जा सके। योग, आयुर्वेद आदि भारत की पारंपरिक चिकित्सा विधियों को आयुष का भी चिकित्सा शिक्षा में सभी स्तरों पर अंतर्भाव किया जाएगा। ग्रामीण शिक्षकों की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए उस हेतु विशेष प्रावधान किया गया है। (5.2) भारत की विशिष्ट परिस्थिति को देखते हुए समाज के सभी वर्गों को शिक्षा के अवसर प्रदान कर सामाजिक समरसता हेतु अनेक क्रांतिकारी एवं व्यावहारिक उपाय दिए गए हैं। (14.1-14.4)
6. वैश्विकता : भारत में ज्ञान के क्षेत्र में कभी सीमाओं का निर्धारण नहीं किया गया। हमारे शिक्षक सारे विश्व में शिक्षा प्रदान करते रहे हैं और सारे विश्व के जिज्ञासु भारतीय विश्वविद्यालयों में आकर ज्ञान प्राप्त करते रहे हैं। विदेशी शासन के बाद इस स्थिति में परिवर्तन हुआ और हम अपनी राजनैतिक सीमाओं में सिमट गए। भारत के विश्वविद्यालयों में अभी तक विदेशी छात्रों के प्रवेश की अत्यंत सीमित संभावना थी। शिक्षा नीति में इसे प्रोत्साहन देने का प्रावधान किया गया है। (12.7) भारतीय शिक्षण मंडल इसका स्वागत करता है। नीति में विश्व के सर्वोत्तम 100 विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने की अनुमति प्रदान करने की बात की है तथा इस हेतु विशेष विधिक प्रावधान बनाए जाएंगे। विदेशी विवि के भारत में आने पर कोई आपत्ति नहीं है। अधिनियमों में यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि उन्हें कोई विशेष सुविधाएं प्रदान नहीं की जाएंगी। जो विधि अथवा कानून भारतीय विवि पर लागू होते हैं, उन्हीं के द्वारा यह विदेशी संस्थान संचालित किए जाएं। वर्तमान में भारतीय विाि को विदेशों में शिक्षा देने का अधिकार नहीं है। विदेशी विवि का भारत में स्वागत करने के साथ ही भारतीय विवि को विदेशों में प्रांगण खोलने हेतु प्रोत्साहित करने का प्रावधान भी नीति में किया गया है। (12.8)
1835 में ब्रिटिशों ने भारतीय शिक्षा अधिनियम के द्वारा भारत की सर्वव्यापी, सर्वसमावेशक शिक्षा नीति को समाप्त करके ब्रिटिश शिक्षा तंत्र को भारत में रूढ़ किया था, जिससे शिक्षा का पूर्ण नियंत्रण सरकार के हाथ में चला गया। ब्रिटिश सरकार ने 7 लाख से अधिक गांवों में फैली हुई सर्वव्यापी, सर्वसमावेशक, सर्वविषयों का अध्ययन कराने वाली भारतीय समग्र एवं एकात्म शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। उसके स्थान पर केवल अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए आवश्यक मन परिवर्तन करने वाली, दासता का निर्माण करने वाली एक सीमित शिक्षा व्यवस्था को लागू किया। देश का दुर्भाग्य है कि उस शिक्षा पद्धति से निकले हुए भारतीय अंग्रेजों के हाथ में ही देश का राजनैतिक नेतृत्व स्वतंत्रता के समय रहा, जिसके कारण स्वतंत्रता के बाद भी शिक्षा की व्यवस्था, नीति और संरचना में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ। 1823 में 100 प्रतिशत साक्षरता वाला देश 1947 में केवल 12 प्रतिशत साक्षरता में सिमट गया था। अत: भारत के सामने पहली चुनौती तो यह थी कि हमारे जन-जन को शिक्षित कर सकें। शिक्षा को पुन: सर्वव्यापी करने की दृष्टि से प्रयत्न हुए और उसमें गुणवत्ता और नीति में परिवर्तन दुर्लक्षित रहा। 73 वर्षों बाद पहली बार एक ऐसी दृष्टि वाली शिक्षा नीति हमारे सामने आयी है जो मैकॉले के षड्यंत्र को पूरी तरह से विफल कर सकती है। 1835 में विश्वगुरु भारत की शिक्षा व्यवस्था का किया हुआ शीर्षासन सीधा करने की क्षमता से परिपूर्ण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 29 जुलाई, 2020 को भारत की जनता को प्रदान की गई। इस हेतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के प्रति कोटिश: आभार प्रकट करना चाहिए। मैकाले-मुक्त शिक्षा के निर्माण के बीज राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अवश्य हैं, किंतु इस संकल्प की सिद्धि इस बात पर निर्भर करेगी कि शिक्षक, शिक्षा प्रबंधक, शिक्षाविद्, अभिभावक और सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यकर्ता किस प्रकार से इस शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में मैकाले-मुक्त दृष्टि से कार्य करते हैं।
(लेखक भारतीय शिक्षण मंडल के अखिल भारतीय संगठन मंत्री हैं)
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