विवेकानंद मोतीराम नर्तन
मूल निवासी दिवस जैसे आयोजन भारत के सन्दर्भ में शायद मायने नहीं रखते। कारण यह कि भारत में कभी इस तरह के विभेद नहीं रहे कि कौन मूल निवासी है और कौन नहीं। यहां सभी समुदाय आपस में इतने घुले-मिले रहे हैं कि विभेद हो ही नहीं सकता
वैश्विक स्तर पर प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त का दिन ‘विश्व मूल निवासी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर विश्व के विविध हिस्सों में बसने वाले मूल निवासियों की सभ्यता, उनके जीवन मूल्य और उनकी परम्पराओं के नष्ट होने को लेकर पीड़ित मूल निवासी चर्चा करते है। उन्होंने असंख्य आघातों को सहते हुए भी वर्तमान में जिन मूल्यों को संजोए रखा है, उन्हें बरकरार रखते हुए, अपने मानवी अधिकारों को बढ़ावा देने एवं उनकी रक्षा करने को लेकर वे संकल्पित होते हैं। इस माध्यम से विश्व समुदाय को भी उनके हितों के संवर्धन के प्रति दायित्व का अहसास दिलाया जाता है।
विश्व मूल निवासी दिवस की संकल्पना की जड़ें प्रमुख रूप से औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों किये गए आक्रमणों एवं बर्बरता से जुड़ी हैं। इन औपनिवेशिक शक्तियों ने अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया, अफ्रीका एवं एशिया में बसने वाले विविध मूल निवासियों, जैसे माया, इन्का, एजटेक आदि की सभ्यताओं को नष्ट किया। जो कुछ बचे रहे, उन्हें दूरदराज के जंगलों एवं पहाड़ों में छुपकर आश्रय लेना पड़ा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब विश्व समुदाय द्वारा इस प्रकार के अन्यायकारी उपनिवेशवाद का विरोध होने लगा, तब जाकर इन दबे—कुचले पीड़ित लोगों को आवाज मिली और उन्होंने अपने आत्मनिर्णय के लिए मुखर होना शुरू कर दिया। विश्व के विविध हिस्सों में बसे मूल निवासियों के बीच इस तरह की एकजुटता ने विश्व समुदाय पर उनके अधिकारों, विशिष्ट संस्कृति और जीवन के तरीके को बनाए रखने के लिए खासा दबाव बनाया। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए 1982 में संयुक्त राष्ट्र की संरचना के भीतर एक सहायक निकाय वर्किंग ग्रुप आॅन इंडिजिनस पापुलेशन्स की स्थापना की गई। विश्व के मूल निवासियों के मुद्दों पर विचार करने के लिए स्थापित इस कार्य समूह की पहली बैठक उसी वर्ष जेनेवा में पहली बार हुई। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित इस कार्यसमूह के विचार-विमर्श और सिफारिशों के बाद, सयुंक्त राष्ट्र महासभा ने 23 दिसंबर, 1994 को निर्णय लिया कि 9 अगस्त का दिन विश्व के मूल निवासियों के अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाए।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में घोषणा की थी कि विश्व समुदाय 1995-2004 तक विश्व के मूल निवासियों का पहला अंतरराष्ट्रीय दशक मनाएगा। इस दशक का मुख्य उद्देश्य मानव अधिकार, पर्यावरण, विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में मूल निवासियों की समस्याओं के समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग को मजबूत करना था। इसके अलावा, 22 दिसंबर, 2004 को महासभा द्वारा अपनाए गए संकल्प के अनुसार, दूसरा अंतरराष्ट्रीय दशक 1 जनवरी, 2005 को शुरू हुआ और दिसंबर 2014 में समाप्त हुआ। इस दशक के केंद्र्रित क्षेत्र थे-मूलनिवासियों के प्रति गैर-भेदभाव की नीतियों को अपनाना और समावेश को बढ़ावा देना, पूर्ण और प्रभावी भागीदारी को सुनिश्चित करना तथा सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त विकास नीतियों आदि को अपनाना।
भारत मूल निवासियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की घोषणा को मान्यता देता है और उसका समर्थन करता है। परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो, भारत की यही मान्यता रही है कि यहां के सभी नागरिक मूलनिवासी हैं। इस लिए ‘मूलनिवासी’ की यह अंतरराष्ट्रीय अवधारणा भारतीय संदर्भ पर लागू नहीं होती। भारत ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा लाए गए विश्व मूल निवासी कन्वेंशन 1989 के संबंध में वही प्रस्तुतियां दी हैं, जिस पर 1989 से अनुसमर्थन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई।
मूलनिवासी लोगों की संकल्पना के वर्णन की पृष्ठभूमि में भारत की भूमिका को समझना आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा प्रायोजित मूलनिवासी कन्वेंशन के अनुच्छेद 1 (अ) में उन्हें राष्ट्रीय समुदाय के अन्य वर्गों की तुलना में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कम उन्नत के रूप में वर्णित किया गया है। आगे अनुच्छेद 1 (ब) में कहा गया है कि उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा पराजित होने के पहले वे, उनके देश या भौगोलिक क्षेत्र में अधिवासित मूल निवासियों के वंशज हैं और उनकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संस्थाएं बाहर से आने वाले लोगों से भिन्न हैं।
मूलनिवासियों की अवधारणा के इस विवरण से, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत में इस्लामी आक्रमणों और उनके शासन के पूर्व अथवा आधुनिक समय में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से पहले ऐसे इतिहास के कोई प्रमाण नहीं हैं। इसके विपरीत कस्बों, गांवों, जंगलों और पहाड़ियों में रहने वाले लोगों के बीच सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कई प्रमाण भारतीय ऐतिहासिक परंपरा में मिलते हैं। कई इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने आर्य आक्रमण सिद्धांत जैसे औपनिवेशिक सिद्धांतों के आविष्कार का पर्दाफाश किया है।
वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण और महाभारत ऐसे उपाख्यानों से परिपूर्ण हैं जो नागर और आरण्यक संस्कृतियों के अंतसंर्बंध को चित्रित करते हैं। आचार्य विनोबा भावे ने ऋग्वेद को ‘जनजातियों का ग्रंथ’ माना है। कई विद्वानों का मानना है कि ऋग्वेद में वर्णित ‘पंचजनों’ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद जनजाति समुदाय के प्रतिनिधि थे और उन्हें समान दर्जा प्राप्त था। साबरा या सावरा के संदर्भों का वर्णन ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है। नगरवासी और वनवासियों के मध्य कई स्नेह और मैत्रीपूर्ण विवरण प्राचीन संस्कृत साहित्य जैसे, पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, विष्णु पुराण आदि में पाए जाते हैं। भारत के जनजातीय विषयों के एक प्रमुख विद्वान वेरियर एल्विन ने भारत के सन्दर्भ में जनजातियों के योगदान के बारे में शबरी, जिन्होंने भगवन श्रीराम को बेर अर्पित किए, का उदहारण देते हुए उसे ‘भारतीय जीवन में जनजातीय समाज के उस योगदान का प्रतीक जो वह दे सकता है और देगा’ बताया है।
वाल्मीकि रामायण में जनजातीय समुदाय का बहुत ही महत्वपूर्ण और सम्मानजनक स्थान है। रामायण में बाली और सुग्रीव को जनजातीय समाज के सबसे पराक्रमी राजाओं के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत के युद्ध में भाग लेने वाले अनेक जनजातीय राजाओं एवं राजपुत्रों का वर्णन गया है। भील जनजातीय समुदाय से संबंधित एकलव्य को एक आदर्श शिष्य एवं महान बलिदानी के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत में पांडव और कौरव, दोनों पक्षों से लड़ने वाले जनजातीय राज्यों और योद्धाओं का पर्याप्त वर्णन है। भीम का पुत्र घटोत्कच, जो युद्ध में वीरता का प्रदर्शन करता है, उनकी जनजातीय पत्नी हिडिम्बा का पुत्र है; अर्जुन ने नागा जनजाति की राजकुमारी उलूपी से विवाह किया।
भारत के मध्ययुगीन और आधुनिक इतिहास में ऐसे पर्याप्त प्रमाण हैं, जब जनजातीय समुदायों के लोगों ने धर्म और राष्ट्र की रक्षा में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और तात्या टोपे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी थी। इसके अलावा, भारत के कई हिस्सों में वे अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए और स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में शामिल हो गए। अंग्रेजों के खिलाफ विद्र्रोह के नायक झारखंड के भगवान बिरसा मुंडा, महाराष्ट्र के उमाजी नाइक, मध्य प्रदेश के टंट्या भील, आंध्र प्रदेश के अल्लूरी सीताराम राजू, नागालैंड की रानी मां गार्इंदिनल्यू, अरुणाचल प्रदेश के मतमूर जामोह, गारो हिल्स, मेघालय के पा तोगन संगमा के योगदान को कैसे भुलाया जा सकता है!
उपरोक्त उदाहरणों से पता चलता है कि भारत में जनजातीय लोगों की अन्य लोगों की तरह समान मित्र और शत्रु की धारणाएं हैं। प्राचीन और मध्यकाल में जिन जनजातीय समुदायों की बात की जाती रही है, वे आज नगरीय समाज में घुल—मिल जाने के कारण अस्तित्व में नहीं हैं। मध्य युग में कई राजपूत राजा इस्लामी शासकों के अत्याचार से बचने के लिए दुर्गम वन क्षेत्रों में चले गए और जनजातीय कहलाए। उदाहरण के लिए, चंदेल राजपूत राजकुमारी रानी दुर्गावती ने गढ़ा मंडला की गोंड जनजाति के राजा दलपत शाह से विवाह किया और मुगलों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।
इसलिए, हम भारत के लोग अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया और दुनिया के कई अन्य हिस्सों की मूल निवासी आबादी के साथ सद्भावना रखते हैं। उन पर किए गए अत्याचारों एवं जातीय संहार जैसी औपनिवेशिक बर्बरता का पुरजोर विरोध करते हैं। भारत में भी इस्लामिक आक्रमण एवं ब्रिटिश राज के कारण वास्तव में हमारे समाज का एक हिस्सा पिछड़ गया है। स्वाधीनता के पश्चात संविधान में पांचवीं और छठी अनुसूचियों जैसे प्रावधानों से भारतीय जनजातियों के समाज जीवन एवं उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास के पहलुओं पर कार्य करने के प्रयास किए गए है। पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम—1996, अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम—2006 आदि कानूनों के माध्यम से भारत सरकार द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। अभी और बहुत कुछ करना शेष है, परन्तु मूलनिवासी दिवस जैसे अवसरों का हमारे ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में कोई औचित्य नहीं है। भारत में मूलनिवासी दिवस जैसे कार्यक्रम का आयोजन अप्रासंगिक एवं अनुचित है। समुदायों के बीच कृत्रिम दरार और कलह के वातावरण को बढ़ावा देने वाले ऐसे समारोहों को सिरे से नकारना हम सब का आवश्यक दायित्व बनता है।
(लेखक श्यामलाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं)
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