राजीव रंजन प्रसाद
आतंकवाद के समर्थकों को महापुरुष बनाने की एक फैक्ट्री है। इसके घोषित-अघोषित फेरहिस्त ट्विटर पर मिल जायेगी, जो स्टेन स्वामी की मौत पर रुदाली बने हुए हैं। कुछ अखबारों की हेडलाइन देख कर आश्चर्य होता है, जिसमें जोर ‘बुजुर्ग’ और ‘हिरासत’ जैसे शब्दों पर है, लेकिन इस पर चर्चा कौन करेगा कि यह कैदी किस आरोप में हिरासत में लिया गया था?
जल, जंगल और जमीन के नाम पर नारेबाजियों का दौर अब बीत चुका, क्योंकि जो सबसे आगे और सबसे तेज चीखता दिखता है, वही जांच-पड़ताल में ‘दाल में पड़ा काला’ निकलता है। लाल-विचारधारा के लिए लड़ने वाले बहुधा पीडि़त, दलित और आदिवासी जैसे शब्दों का एक टूल की तरह प्रयोग करते हैं। वे सहानुभूति नहीं रखते, अपितु इन्हें अपने लिये ढाल की तरह देखना चाहते हैं। यह देश सतत विखण्डनवादियों के षड्यंत्रों से जूझ रहा है। ऐसे में किसी भी सहानुभूति बटोरते जिंदा या मुर्दा चेहरे के पीछे के आदमी का नख-शिख व्यक्तित्व के साथ विवेचित किया जाना आवश्यक है। भीमा कोरेगांव षड्यंत्र के सूत्रधारों को रंगे हाथ, साक्ष्य के साथ धरा गया है। इस संबंध में माननीय अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा की जा सकती है कि नीर-क्षीर विवेक हो, तथापि किसी को भी साजिशकर्ताओं से क्यों सहानुभूति होनी चाहिए?
कलम से कत्लेआम मचाने वाले
एक लिटमस पेपर टेस्ट है, आप भी कर के देखिये। जिस मसले पर देश के ‘वामपंथी कथित बुद्धिजीवी’ एक सुर में छाती पीट-पीट लहू-लुहान हो रहे हो, इसका सामान्य सा अर्थ है कि प्रकरण वैसा नहीं जैसा कि माहौल बनाने का प्रयास है। इसे बारीकी से समझने के लिये थोड़ा शहरी माओवाद शब्द की पड़ताल करते हैं। कौन हैं शहरी माओवादी? वही जो खून और हत्या का खेल कलम के माध्यम से खेलते हैं। ऐसे लोग प्रोफेसर साईबाबा की तरह व्हीलचेयर पर हो सकते हैं या फादर स्टेन स्वामी की तरह 84 वर्षीय बुजुर्ग, जिनके लिये अखबार रंगे हुए हैं कि “देश का सबसे उम्रदराज आदमी जिस पर आतंकवादी होने का आरोप था”। ‘गरीब मास्टर का बेटा’ जैसे जुमले यदि आपको संवेदित करते हैं तो आप भी स्टेन की मौत पर बनाई गई टेलीग्राफ अखबार की शातिर हेडलाइन ‘फॉर्गिव अस नॉट, फादर’ से समहत हो सकते हैं। लेकिन कभी भी, किसी भी तरह के आतंकवाद से यदि आपका सामना हुआ है तो समझ सकते हैं कि लाल-विचारधारा के कट्टर अनुयायी कितने घातक और निर्मम होते हैं। काम कैसे करते हैं शहरी नक्सली, उसके लिये देखें कि एक आरोपी जिसे न्यायिक प्रक्रिया के तहत गिरफ्तार किया गया, जिसे बीमार पड़ने के बाद आवश्यक दवाइयां और चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध कराई गई। उसकी मौत पर फर्जी चित्र तैराया जा रहा है, जिसमें एक बुजुर्ग पैरों में बेडि़यां लगाये बैठा है। असल में नकली प्रोपगेंडा नकली चित्रों के सहारे ही किया जाता है। सोचिये इस फर्जी प्रचार और चिल्ला-चिल्ला कर सहनुभूति बटोरने की आवश्यकता क्यों है?
कौन था स्टेन स्वामी
फादर स्टेन स्वामी क्या करता था, किन संस्थाओं से जुड़ा था, इसके लिए कागज काला करने की आवश्यकता नहीं। कारण, लाल-ध्वजधारक उसका बायोडाटा व्हाट्सएप-ट्विटर और फेसबुक पर धकिया रहे हैं। हमें चर्चा करनी चाहिये कि इस मृतक कैदी पर आरोप क्या थे और किस गंभीरता के थे। ऐसा क्यों था कि तमाम दबावों और जिंदाबाद-मुर्दाबाद के बाद भी इस आरोपी को जमानत नहीं मिल सकी थी? इस कहानी को दोहराने की आवश्यकता नहीं कि एल्गार परिषद और माओवादियों के अंतर्सम्बंध क्या हैं? इसे आप फादर स्टेन के साथ पकड़े गये गौतम नवलखा और वरवर राव जैसे आरोपियों के प्रोफाइल को पढ़ कर जान और समझ सकते हैं। यह प्रश्न क्यों नहीं उठता कि एनआईए ने जब उन्हें साक्ष्यों के साथ गिरफ्तार किया तब क्या समाजसेवा जैसे शब्दों के मायने नहीं बदल गये थे? उन पर आईपीसी की विभिन्न धाराएं यथा -120(B), 121, 121(A), 124(A) और 34 लगाई गई हैं, क्या इनकी प्रकृति गंभीर नहीं? उन पर यूएपीए की धारा 13, 16, 18, 20, 38 और 39 भी लगाई गई है। इस आलोक में सोचिये कि क्या फादर स्टेन एक्टिविस्ट ही थे? अगर उन प्रश्नों को हमने खड़ा नहीं किया तो आप जान में कि वामपंथी गोएबल्स के पक्के चेलों में से हैं, सौ बार झूठ बोल कर वे किसी भी आतंकवादी को गरीब मास्टर का बेटा बना ही देंगे।
तो क्या यह प्रकरण अनदेखा करने योग्य है? जिस व्यक्ति की मृत्यु के बाद विपक्ष का एक विशेष धड़ा ट्विटर को भरे दे रहा है, वामपंथ की सभी दुकानें सक्रिय हैं, विदेशी मीडिया को भी सक्रिय कर दिया गया है और परदेसी गलियारों में भी धरने-प्रदर्शन की तैयारी है, ऐसे में चुपचाप एक आरोपी को नायक बनते देखते रहना कितना उचित है?
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