काजी दाद मोहम्मद रेहान
पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले बलूचिस्तान के ग्वादर में बीते 12 दिनों से लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं। यहां शहीद लाला हमीद चौक पर हज़ारों की संख्या में लोग धरने पर बैठे हैं। यहां धरने पर बैठने से पहले इन लोगों ने सड़क जाम किया, प्रेस कॉन्फ्रेंस किए और रेडियो के जरिये भी सरकार तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश की। लेकिन जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो ये लोग अपनी मांगें मनवाने के लिए चौराहे पर बैठ गए। वैसे तो इनकी कई मांगें हैं, लेकिन जिस मांगों को लेकर इतनी बड़ी संख्या में लोग धरने पर बैठे हैं, वह है इस क्षेत्र के लोगों के प्रति पाकिस्तानी फौज का रवैया। यहां के लोगों को सड़कों पर रोक कर पूछताछ के बहाने घंटों तक परेशान किया जाता है। ऐसा नहीं है कि किसी खास जगह पर ऐसा होता है।
बलूचिस्तान में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चेकपोस्ट हैं, जहां पाकिस्तानी फौज तैनात रहती है। सुरक्षा की दृष्टि से कोई इसे जायज ठहरा सकता है, लेकिन बलूचिस्तान में इसकी कोई जरूरत ही नहीं है। यहां न तस्करी होती है, न ज्यादा अपराध है और न ही पर्यटकों की आवाजाही, दूसरे राज्य की सीमा या चुंगी है। ऐसा कुछ भी नहीं है कि यहां कदम-कदम पर फौज को तैनात कर दिया जाए। बलूचिस्तान के गांवों की बात छोड़ दीजिए, यहां के शहरों की आबादी ही बहुत कम है। यहां के कुछ शहरों की आबादी तो हिन्दुस्थान के गांवों से भी कम है। शाल, तुरबत, ग्वादर, गुलदार, पंजगूर, अब्र इन शहरों की आबादी ही कुछ अधिक है। ग्वादर की आबादी डेढ़ लाख से अधिक नहीं है। इसी तरह, एक गांव में बमुश्किल 100-200 लोग ही रहते हैं। यहां आबादी इतनी कम है, घर इतने कम हैं, इसके बावजूद हर आधे किलोमीटर पर पाकिस्तानी फौज की चौकियां हैं। हर चौकी पर यही पूछा जाता है- कहां से आ रहे हो? कहां जाना है?
आसपास के शहरों से आए लोग
धरने पर केवल ग्वादर के लोग ही नहीं बैठे हैं, बल्कि हजारों की संख्या में पूरे मकरान डिविजन, पंजगूर, तुरबत ही नहीं, जामरान जैसे दूर-दराज के गांवों से भी लोग आए हैं। इनमें छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल हैं। यहां तक कि ईरान के नियंत्रण वाले मगरबी बलूचिस्तान के सीमावर्ती इलाकों से भी लोग प्रदर्शन में शामिल हुए हैं। यही नहीं, बलूचिस्तान के लोग जो बाहर बसे हुए हैं, वहां से वे न केवल इस आंदोलन को समर्थन कर रहे हैं, बल्कि प्रदर्शनकारियों को भोजन-पानी और ठहरने सहित अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करा रहे हैं। बलूचिस्तान के बाहर राजपोरा और खाड़ी देश के खलीजी में भी प्रदर्शन किए जा रहे हैं। लोगों का मानना है कि यह केवल ग्वादर की आवाज नहीं है। मानवाधिकार और शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क व रोजगार जैसी बुनियादी सहूलियतों के लिए यह समूचे बलूचिस्तान की आवाज है।
मौलाना की अगुवाई में प्रदर्शन
मौलाना हिदायत-उर-रहमान इस प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे हैं। मौलाना बलूचिस्तान के एक मजहबी संगठन जमात-ए-इस्लामी महासचिव हैं। मौलाना की पृष्ठभूमि हालांकि राष्ट्रवादी नेता की नहीं है, लेकिन उनके विचार बलूचिस्तान की आजादी के लिए संघर्षरत नेताओं और समूहों से अलग नहीं हैं। बलूचिस्तान के लोग यह कहते हैं कि हम पाकिस्तान के साथ नहीं रहना चाहते हैं। इसे लेकर एक कई स्तरों पर संघर्ष और आंदोलन चल रहा है। इसमें पहली परत में राजनीतिक दलों के नेता, बलूच नेशनलिस्ट मूवमेंट, स्प्रिंट ऑर्गनाइजेशन और विश्व आजाद जैसे संगठन शामिल हैं, जबकि दूसरी परत में संघर्ष करने वाले संगठन, बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट, बलूच लिबरेशन आर्मी, बलूच रिपब्लिकन आर्मी सहित दूसरे संगठन भी बलूचिस्तान की आजादी के संषर्ष में जुड़े हुए हैं। मौलाना हिदायत-उर-रहमान बलूच की राजनीतिक पृष्ठभूमि बहुत अलग है। बलूचिस्तान की आजादी मांग रहे लोग एक तय कार्यक्रम के तहत चलते हैं। वे कहते हैं कि हम पाकिस्तान की किसी सभा और चुनाव में शामिल नहीं होंगे। लेकिन जमात-ए-इस्लामी की सोच बिल्कुल अलग है। शुरुआत में मौलाना जब राजनीति में आए थे तो हमें देशद्रोही की तरह देखते थे। जैसे हम सब हिन्दुस्थान के एजेंट हों और हमें वहां से पैसे मिलते हैं, इसलिए पाकिस्तान के खिलाफ बात करते हैं। उन्हें हमसे बात करने से रोका जाता है। उनसे कहा जाता है कि अगर आप इन लोगों से बात करेंगे तो लोग समझेंगे कि आप देशद्रोही हैं।
चूंकि वे मदरसे में पढ़े हैं, जमात-ए-इस्लामी ने उन्हें यही सिखाया और पढ़ाया है कि पाकिस्तान उनका अपना देश है। यह इस्लाम के नाम पर बना है, इसलिए हम सब एक हैं और सभी को एकजुट होकर रहना चाहिए। लेकिन धीरे-धीरे मौलाना के नजरिए में बदलाव आया। आज वे कह रहे हैं कि अगर मैं जमात-ए-इस्लामी में नहीं होता तो डॉक्टर अल्लाह नजल के साथ होता। यह एक बड़ी बात है। एक बड़ा बदलाव आया है, लोगों की सोच बदली है।
सम्मान के लिए एकजुट हुए बलूच
ग्वादर में जो लोग एकजुट हुए हैं, वे जमात-ए-इस्लामी के लिए नहीं, बल्कि अपने सम्मान के लिए खड़े हुए हैं। वे अपना सम्मान चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें न रोका-टोका जाए। दरअसल, पाकिस्तान को यह पसंद ही नहीं कि बलूचिस्तान में कोई बलूच रहे। क्योंकि बलूच अपनी बोली, संस्कृति और रहन-सहन को पाकिस्तान से अलग मानते हैं। वे कहते हैं कि बलूचिस्तान की जमीन उनकी है, जिसके मालिक वे हैं। उन्हें अपना हक चाहिए। बलूचों की यही बात पाकिस्तान सरकार को खटकती है। इसलिए वह बलूचिस्तान पर कब्जा जमाए रखने के लिए बलूचों को अल्पसंख्यक बनाना चाहती है। बलूचों का जनसांख्यिकीय बदलाव करना चाह रही है। वैसे भी बलूचों की आबादी बहुत कम है, ऊपर से दूसरे लोगों को यहां लाकर बसाया जा रहा है। पाकिस्तान की नजर बलूचिस्तान के संसाधनों पर है। वह किसी भी तरह से हमारे संसाधनों को लूटना चाहता है। लेकिन जब वह इसमें सफल नहीं हुआ तो चीन को बुला लिया कि दोनों मिलकर इसे लूटेंगे। केवल चीन ही नहीं, यूरोप, खाड़ी देश की कंपनियों को भी इसी सोच के तहत परियोजनाएं शुरू करने का न्यौता दिया। हालांकि इस लूटपाट में पाकिस्तान को नुकसान हुआ, लेकिन फौज को फायदा हुआ।
कुछ मांगें मानी गईं
बहरहाल, ग्वादर का यह आंदोलन बलूचों को हौसला देगा। अभी तक चार-पांच मांगें मानी गई हैं। एक विश्वविद्यालय की मांग पहले ही मानी जा चुकी है। साथ ही, इलाके में फौज की चौकियां घटाने, सीमा पार व्यापार, समुद्र में जहाजों से मछली पकड़ने पर रोक सहित कई मांगें सुनी जा रही हैं। इस प्रदर्शन ने बलूचिस्तान को आवाज दी है, जो आगे चलकर यहां के राजनीतिक माहौल को बदल देगा। मैं समझता हूं कि अब यह सिलसिला नहीं रुकेगा। बलूचिस्तान में अब जहां भी बलूचों पर कोई बात आएगी, तो ये सब मिलकर मुकाबला करेंगे। यह पाकिस्तान के लिए एक नई चुनौती लेकर आया है। पाकिस्तान ने तरह-तरह के हथकंडे अपनाए, लेकिन इतने सालों में भी बलूचिस्तान पर कब्जा नहीं कर सका, बलूचिस्तान की आवाज को नहीं दबा सका।
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